________________
५५६
प्रमेयकमलमार्तण्डे कश्चायमन्यापोहशब्दवाच्योर्थो यत्रान्यापोहसंज्ञा स्यात् ? अथ विजातीयव्यावसानर्थानाश्रित्यानुभवादिक्रमेण यदुत्पन्न विकल्पज्ञानं तत्र यत्प्रतिभाति ज्ञानात्मभूतं विजातीयव्यावृत्तार्थाकारत्याध्यवसितमर्थप्रतिबिम्बकं तत्रान्यापोह इति संज्ञा । ननु विजातीयव्यावृत्तपदार्थानुभवद्वारेण शाब्दं विज्ञान तथाभूतार्थाध्यवसाय्युत्पद्यते इत्यत्राविवाद एव । किन्तु तत्तथाभूतपारमार्थिकार्थग्राहयभ्युपगन्तव्यमध्यवसायस्य ग्रहणरूपत्वात् । विजातीयव्यावृत्तेश्च समानपरिणामरूपवस्तुधर्मत्वेन व्यवस्थापितत्वान्नाममात्रमेव भिद्यत ।
जैन का बौद्ध के प्रति प्रश्न है कि अन्यापोह शब्द द्वारा जिसको कहा जाता है वह पदार्थ कौनसा है जहां पर कि अन्यापोह संज्ञा अर्थात् संकेत किया जाय ?
___ बौद्ध-विजातीय अश्वादि से व्यावृत्त होने वाले पदार्थों का आश्रय लेकर अनुभवादि क्रम से जो विकल्प ज्ञान होता है उस ज्ञान में जो ज्ञानात्मभूत प्रतीत होता है, तथा जो विजातीय से व्यावृत्त होने वाले अर्थों के आकार रूप से अध्यवसित ( निश्चित ) होता है एवं जो अर्थ प्रतिबिम्ब स्वरूप ( ज्ञान से अभिन्न ) है उस वस्तु में अन्यापोह संज्ञा की जाती है ( ऐसा हमारे विज्ञानाद्वत वादी बौद्ध भाई का कहना है ) इसका स्पष्टीकरण करते हैं- “गौः' यह शब्द प्रथम तो गो से विजातीय भूत अश्व, हस्ती आदि से पृथक् जो खंडी गो मुडी गो इत्यादि गो विशेष हैं उनका प्राश्रय लेकर क्रम से अनुभव आदि उत्पन्न होते हैं, अर्थात् पहले तो खंड आदि गो का अनुभव नामा निर्विकल्प दर्शन प्रादुर्भूत होता है पुनः सविकल्प ज्ञान होता है उसके अनन्तर संकेत काल में ज्ञात किये हुए वाच्य वाचक का स्मरण होकर उससे वाच्य वाचक की योजना होती है और “यह गो है' इस प्रकार विकल्प ज्ञान होता है, ऐसा ज्ञान जिसमें हो वह अन्यापोह का वाच्यार्थ है ?
जैन- ठीक है, विजातीय अर्थ से व्यावृत्त होने वाले पदार्थों के अनुभव क्रम से होने वाला शाब्दिक ज्ञान उस तरह का अध्यवसाय करने वाला उत्पन्न होता है इसमें कोई विवाद नहीं है किन्तु उस प्रकार के उक्त ज्ञान को वास्तविक पदार्थ का ग्राहक है ऐसा स्वीकार करना होगा क्योंकि अध्यवसाय अर्थात् निश्चायकपना उसी ज्ञान में संभव है कि जो उस विषय को ग्रहण करता है। अभिप्राय यह है कि यदि विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध ने जो यह कहा कि गो ग्रादि शब्द से होने वाला शाब्दिक ज्ञान पदार्थ का निश्चय कराता है सो तब संगत हो सकता जब उक्त ज्ञानके विषयभूत अर्थ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org