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प्रमेयकमलमार्तण्डे स चेदगोनिवृत्त्यात्मा भवेदत्योन्यसंश्रयः । सिद्धश्चेद्गौरपोहार्थं वृथापोहप्रकल्पनम् ।।२।। गव्यसिद्ध त्वगौर्नास्ति तदभावेप्य(पि)गौः कुतः। नाधाराधेयवृत्त्यादिसम्बन्धश्चाप्यभावयोः ॥३॥"
[ मो० श्लो० अपोह० श्लो० ८३-८५ ] __दिग्नागेन विशेषणविशेष्यभावसमर्थनार्थम् "नीलोत्पलादिशब्दा अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टानर्थानाहुः” [ ] इत्युक्तम्; तदयुक्तम्; यस्य हि येन कश्चिद्वास्तवः सम्बन्धः सिद्धस्तत्ते न विशिष्टमिति वक्तु युक्तम्, न च नीलोत्पलयोरनीलानुत्पलव्यवच्छेदरूपत्वेनाभावरूपयोराधाराधेयत्वादिः सम्बन्धः सम्भवति; नीरूपत्वात् । प्रादिग्रहणेन संयोगसमवायैकार्थसमवायादिसम्बन्धग्रहणम् । न चासति वास्तवे सम्बन्धे तद्विशिष्टस्य प्रतिपत्तियुक्ताऽतिप्रसङ्गात् ।
निवृत्ति रूप माने तो स्पष्टरूप से इतरेतराश्रय दोष पाता है, यदि अगो पद का विधिरूप अर्थ करते हैं और केवल अगो व्यावृत्तिरूप अपोह की सिद्धि के लिये उसका प्रयोग करते हैं तो उस अपोह की कल्पना करना वृथा ही है ।।२।। तथा गो शब्द का अर्थ अप्रसिद्ध है तो अगो का अर्थ भी नहीं हो पाता और अगो का अभाव रूप गो पदार्थ भी किस हेतु से सिद्ध हो सकेगा ? अर्थात् नहीं हो सकता। अभिप्राय यह है कि गो शब्द और अगो शब्द इन दोनों शब्दों का भी अर्थ सिद्ध नहीं होता, अभावों में आधार आधेयवृत्ति आदि रूप सम्बन्ध होना भी अशक्य है ।।३।।
बौद्ध मत के ग्रन्थकार दिग्नाग ने कहा है कि-विशेषण और विशेष्य भाव के समर्थन के लिये प्रयुक्त हुए नील, उत्पल आदि शब्द अर्थांतर की ( अनील, अनुत्पल आदि की ) निवृत्तिरूप विशिष्ट अर्थों को ही कहते हैं इत्यादि, सो यह कथन प्रयुक्त है। इसी का खुलासा करते हैं - जिसका जिसके साथ कोई वास्तविक सम्बन्ध सिद्ध रहता है तो वह उससे विशिष्ट है ऐसा कह सकते हैं किन्तु अनील और अनुत्पल की व्यावृत्ति के कारण अभावरूप सिद्ध हुए नील और उत्पल पदार्थों में आधार आधेय
आदि सम्बन्ध होना अशक्य है क्योंकि अनीलादि अभाव नीरूप है। आदि शब्द से संयोग सम्बन्ध, समवाय सम्बन्ध, एकार्थसमवाय सम्बन्ध इत्यादि सम्बन्धों का ग्रहण करना चाहिये, अर्थात् इन अनील अनुत्पल आदि की व्यावृत्ति रूप नीरूप पदार्थों में संयोग सम्बन्ध समवाय सम्बन्ध ग्रादि सम्बन्ध भी नहीं हो सकते । और जब वास्तविक
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