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अपोहवादः शक्यः । अथाऽगोनिवृत्यात्मा गौरेव, नन्वेवमगोनिवृत्तिस्वभाव-वाद्गोरगोप्रतिपत्तिद्वारेणैव प्रतीतिः, अगोश्च गोप्रतिषेधात्मकत्वाद्गोप्रतिपत्तिद्वारेणेति स्फुट मितरेतराश्रयत्वम् ।
अथाऽगोशब्देन यो गौनिषिध्यते स विधिरूप एवागोव्यवच्छे दलक्षणापोहसिद्धयर्थम् तेनेतरेतराश्रयत्वं न भविष्यति; यद्येवम्-'सर्वस्य शब्दस्यापोहोऽर्थः' इत्येवमपोहकल्पना वृथा विधिरूपस्यापि शब्दार्थस्य भावात्, अन्यथेतरेतराश्रयो दुनिवारः । तदुक्तम्
"सिद्धश्चागौरपोह्यत गोनिषेधात्मकश्च सः । तत्र गौरेव वक्तव्यो नत्रा यः प्रतिषिध्यते ॥१॥
शंका-अगो की निवृत्तिरूप जो पदार्थ है वह गो ही है ।
समाधान- इस तरह कहने पर तो गो नामा पदार्थ अगो की निवृत्तिरूप स्वभाव वाला सिद्ध होता है अतः गो का ज्ञान अगो के जानने के अनंतर ही हो सकेगा, पुनश्च "अगो" नामकी वस्तु भी गो के प्रतिषेध स्वरूप होने से गो की प्रतीति होने के अनन्तर ही अगो का ज्ञान होवेगा इस प्रकार स्पष्टतया इतरेतराश्रय दोष आता है । अर्थात् गो का ज्ञान तब होवे जब अगो का व्यावर्तन हो और अगो भी गो के निषेध रूप होने से गो को ज्ञात करने के अनन्तर ही व्यावृत्त हो सकती है इसलिए गो ज्ञान और अगो ज्ञान परस्पराश्रित सिद्ध होकर गो शब्द द्वारा अर्थ बोध होना दुर्लभ हो जाता है।
__ बौद्ध-"अगो" इस पद में स्थित जो गो शब्द है उस गो शब्द से जिस गो अर्थका निषेध किया जाता है वह विधिरूप ही है ( अस्तित्वरूप ही है, अगो की निवृत्ति रूप नहीं है ) अगो के व्यवच्छेद स्वरूप अपोह की सिद्धि के लिये उसका प्रयोग होता है अतः उक्त इतरेतराश्रय दोष नहीं होगा ?
जैन--यदि ऐसी बात है तो "सभी शब्दका अर्थ अपोह ही होता है" ऐसा कहना व्यर्थ है क्योंकि विधिरूप भी शब्दका अर्थ होता है ऐसा मान लिया। अन्यथा वही इतरेतराश्रय दोष आना दुनिवार है। जैसा कि कहा है - अगो पद में जो गो शब्द है वह ज्ञात होकर ही अपोहित किया जा सकता है जो कि गो का निषेध स्वरूप है, "न गौः', इस नत्र समास द्वारा जो प्रतिसिद्ध होता है वह पदार्थ गो ही है ऐसा बौद्ध का कहना है ।।१।। नञ समास द्वारा प्रतिसिद्ध होने वाले उस अर्थको अगो की
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