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शब्दनित्यत्ववादः
तेषामनुपलब्धेश्च न जाता लिङ्गतो गतिः । नागमस्तत्परश्चास्मिन्नाऽदृश्ये चोपमा क्वचित् ॥२॥
न चास्यानुपपत्तिः स्याद्वर्णस्यावयवैर्विना । यथान्यावयवानां हि विनाप्यवयवान्तरैः ॥३॥
प्रत्यक्षेणावबुद्धश्च वर्णोऽवयववर्जितः । किन्न स्याद्वयोमवच्चात्र लिंगं तद्रहिता मतिः ॥ ४॥ "
[ मी० श्लो० स्फोटवा० श्लो० ११-१४ ]
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इति वचो विरुद्धच ेत ।
यत्पुनरुक्तम्- 'व्यञ्जकध्वन्यधीनत्वात्तद्देशे स च गृह्यते' इत्यादि; तत्र कुतो ध्वनयः प्रतिपन्ना येन तदधीना शब्द तिः स्यात् ? प्रत्यक्षेण, अनुमानेन, अर्थापत्त्या वा ? प्रत्यक्षेण चेतिक श्रोत्रेण, स्पर्शनेन वा ? न तावच्छ्रोत्रेण; तथा प्रतीत्यभावात् । न खलु शब्दवत्तत्र ध्वनयः प्रतिभासन्ते विप्रतिपत्त्यभाव
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पृथक नहीं दिखते हैं, तथा वस्त्र में जैसे तंतु दिखायी देते हैं वैसे वर्ण में अवयव दिखाई नहीं देते हैं, अतः प्रत्यक्ष प्रमाण से वर्ण के अवयवों की सिद्धि नहीं होती ॥ १ ॥ अनुपलब्ध होने से अनुमान द्वारा भी वर्ग के अवयव सिद्ध नहीं होते हैं । आगम भी शब्द के अवयवों का प्रतिपादक नहीं है, तथा अदृश्य होने से उपमा द्वारा भी उसके अवयव सिद्ध नहीं होते ||२||
ऐसा भी नहीं है कि अवयवों के बिना वर्ण की व्यवस्था नहीं बनती हो, जैसे अवयवों में अन्य अवयवों की जरूरत नहीं पड़ती वैसे वर्ण में प्रवयव की जरूरत नहीं है जब प्रत्यक्ष से ही वर्ण अवयव रहित प्रतीत होता है तब उसे आकाश के समान अवयव रहित क्यों न माना जाय ? वर्ण अवयव रहित है क्योंकि वैसी प्रतीति होती है, इस प्रकार के हेतु से भी वर्ण अवयव रहित सिद्ध होते हैं ||३||४|| इत्यादि ।
मीमांसक ने कहा था कि शब्द व्यञ्जक ध्वनि के अधीन है, व्यञ्जक ध्वनि जहां होती है वहां वर्ण ग्रहण में आता है, इत्यादि । सो इस पर हम जैन का प्रश्न है कि व्यंजक ध्वनियों को किस प्रमाण से जाना है जिससे कि शब्द का सुनना उसके अधीन माना जाय, प्रत्यक्ष से अनुमान से अथवा प्रर्थापत्ति से ? प्रत्यक्ष से माने तो यह कौनसा प्रत्यक्ष है कर्णेन्द्रिय प्रत्यक्ष से कहो तो ठीक नहीं है
क्योंकि उस तरह की
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