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शब्दसम्बन्धविचारः
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यथा मेर्वादयः सन्ति ॥१०१।। इति ।
ननु चासौ सहजयोग्यताऽनित्या, नित्या वा ? न तावदनित्या; अनवस्थाप्रसङ्गात् येन हि प्रसिद्धसम्बन्धेन 'अयम्' इत्यादिना शब्देनाप्रसिद्धसम्बन्धस्य घटादेः शब्दस्य सम्बन्धः क्रियते तस्याप्यन्येन प्रसिद्धसम्बन्धेन सम्बन्धस्तस्याप्यन्येनेति । नित्यत्वे चास्याः सिद्ध नित्यसम्बन्धाच्छब्दानां वस्तुप्रतिपत्तिहेतुत्व मिति मीमांसकाः; तेप्यतत्त्वज्ञाः; हस्तसंज्ञा दिसम्बन्धवच्छब्दार्थसम्बन्धस्यानित्यत्वेप्यर्थप्रतिपत्तिहेतुत्वसम्भवात् । न खलु हस्तसंज्ञादीनां स्वार्थेन सम्बन्धो नित्यः, तेषामनित्यत्वे तदाधितसम्बन्धस्य नित्यत्वविरोधात् । न हि भित्तिव्यपाये तदाश्रितं चित्रं न व्यतीत्यभिधातु शक्यम् ।
घट कहना, घट ऐसा होता है इत्यादि । इस प्रकार शब्द और अर्थ की सहज योग्यता और संकेत ग्रहण इन दो कारणों से शब्द द्वारा पदार्थ का बोध होता है।
इस तरह शब्द की योग्यता के होने पर संकेत होता है और संकेत से शब्दादिक वस्तु के प्रतीति में हेतु हो जाते हैं ।
यथा मेर्वादयः सन्ति ।।१०१।। सूत्रार्थ-जैसे मेरुपर्वत आदि पदार्थ हैं ऐसा कहते ही आगमोक्त मेरुपर्वत की प्रतीति हो जाया करती है ।
मीमांसक- यह सहज योग्यता अनित्य है या नित्य ? अनित्य है ऐसा तो कह नहीं सकते क्योंकि अनवस्था दूषण आता है कैसे सो ही बताते हैं-प्रसिद्ध सम्बन्ध वाले “यह" इत्यादि शब्द द्वारा अप्रसिद्ध सम्बन्धभूत घट आदि शब्द का सम्बन्ध किया जायगा, पुनः उस शब्द का भी किसी अन्य प्रसिद्ध सम्बन्ध वाले शब्द द्वारा सम्बन्ध किया जाना और उसका भी अन्य द्वारा ( क्योंकि योग्यता अनित्य होने से नष्ट हो जाती है और उसको पुनः पुनः अन्य अन्य शब्द द्वारा सम्बद्ध करना पड़ता है ) हां यदि इस सहज योग्यता को नित्य रूप स्वीकार करते हैं तो उस नित्य योग्यता का सम्बन्ध होने के कारण ही नित्य रूप शब्द पदार्थ का बोध कराने में हेतु होते हैं ऐसा स्वयमेव सिद्ध होता है ?
जैन-यह कथन असत् है, शब्द और अर्थ का सम्बन्ध अनित्य होते हुए भी हस्त संज्ञा आदि के सम्बन्ध के समान ये भी अर्थ की प्रतिपत्ति कराने में हेतु होते हैं अर्थात् हस्त के इशारा से नेत्र के इशारा से जिस प्रकार अर्थ बोध होता है जो कि
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