Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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शब्दसम्बन्धविचारः योस्तादात्म्यम्; सम्बन्धस्यानित्यत्वानुषंगात् । नापि तदुत्पत्तिः; अनभ्युपगमात् । असम्बद्धश्चार्थः कथं सम्बन्धं ज्ञापयत्यतिप्रसंगात् ? ज्ञापने वा शब्दा एवं सम्बन्धविकलाः किमथं न ज्ञापयन्त्यलं सिद्धोपस्थायिना नित्यसम्बन्धेन ? तन्नार्थोपि लिंगम् । नापि शब्दः; अर्थपक्षोक्तदोषानुषंगात् । ततो नित्यसम्बन्धस्य प्रमाणतोऽप्रसिद्धर्न तद्वशा दोऽर्थप्रतिपादकः ।
अथ स्वभावादेवासी तत्प्रतिपादकः; तन; 'अयमेवास्माकमर्थो नायम्' इति वेदेनानुक्तेः । तदुक्तम्
"अयमर्थो नायमर्थ इति शब्दा वदन्ति न । कल्प्योयमर्थः पुरुषस्ते च रागादिविप्लुताः ॥१॥"
[प्रमाणवा० ३।३१२ ]
अर्थका शब्दार्थ के नित्य सम्बन्ध के साथ सम्बन्ध होना प्रसिद्ध है कैसे सो बताते हैंसम्बन्ध और अर्थ में तादात्म्य सम्बन्ध तो होता नहीं, यदि इनमें तादात्म्य माना जायगा तो अर्थके समान सम्बन्ध को भी अनित्य मानना पड़ेगा। सम्बन्ध और अर्थमें तदुत्पत्ति सम्बन्ध होना तो अशक्य है क्योंकि ऐसा परवादी ने माना नहीं । और शब्दार्थ नित्य सम्बन्ध के साथ जब तक अर्थ सम्बद्ध नहीं होता तब तक वह अर्थ उक्त सम्बन्ध को किस प्रकार बतला सकता है ? अर्थात् नहीं बतला सकता अन्यथा अतिप्रसंग होगा। अथवा यदि असम्बद्ध अर्थ द्वारा नित्य सम्बद्ध ज्ञापित भी होवे तो भी कुछ लाभ नहीं, इस तरह तो सम्बन्ध रहित केवल शब्द ही अर्थका ज्ञापन क्यों नहीं कर लेवे ? अर्थात् नित्य सम्बन्ध के बिना भी शब्द अपने वाच्यार्थ को कहने में समर्थ है अतः इस सिद्ध उपस्थायी (सब कार्य हो चुकने पर उपस्थित होने वाले) नित्य सम्बन्ध की परिकल्पना से अब बस हो । उससे क्या प्रयोजन है ? इस प्रकार नित्य सम्बन्ध का हेतु अर्थ है ऐसा द्वितीय पक्ष गलत सिद्ध हुआ। शब्दको हेतु मानना भी अयुक्त है इस पक्ष में भी अर्थ पक्ष में दिये हुए दोष आते हैं। इसलिये नित्य सम्बन्ध प्रमाण द्वारा प्रसिद्ध होने से उसके द्वारा वेद अर्थका प्रतिपादक होता है ऐसा कहना प्रसिद्ध होता है ।
मीमांसक-वेदवाक्य स्वभाव से ही अर्थ के प्रतिपादक हुआ करते हैं ?
जैन- यह कथन असत् है "हमारे वाक्यों का यही अर्थ है, यह अर्थ नहीं है" ऐसा वेद द्वारा कहा नहीं जाता है । जैसा कि ग्रन्थांतर में बतलाया है कि-शब्द आप
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