Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे तस्माच्चेद्वे दैकदेशोऽर्थनियमं प्रतिपद्यते, किमपौरुषेयत्वेन ? अनेकार्थ नियमे च विरुद्धोप्यर्थः सम्भवेत्, तथा चास्य मिथ्यात्वम् ।
किंच, असौ सम्बन्ध ऐन्द्रियः, अतीन्द्रियः, अनुमानगम्यो वा स्यात् ? न तावदेन्द्रियः; स्वेन्द्रिये स्वेन रूपेणाप्रतिभासमानत्वात् । अतीन्द्रियश्चेत्, कथं प्रतिपत्त्यंगं ज्ञापकस्य निश्चयापेक्षणात् ? सन्निधिमात्रेण ज्ञापनेऽतिप्रसंगात् ।
अनुमानगम्यश्चेत्, न; लिंगाभावात् । तस्य हि लिंगं ज्ञानम्, अर्थः, शब्दो वा ? न तावज्ज्ञानम्; सम्बन्धासिद्धौ तत्कार्यत्वेनास्याऽनिश्चयात् । नाप्यर्थः; तस्य तेन सम्बन्धासिद्ध:। न हि सम्बन्धार्थ
भी नहीं । अर्थात् वेद को अपौरुषेय इसलिये मानते हैं कि रागादियुक्त पुरुष वेद की रचना को प्रामाणिक रूप नहीं कर सकते किन्तु जब रागादियुक्त पुरुष वेद वाक्य का अभिमत एक निश्चित अर्थ कर सकते हैं तब उस वेद को अपौरुषेय मानने का कुछ प्रयोजन नहीं रहता है। संकेत अनेक अर्थों में नियत है ऐसा दूसरा पक्ष माने तो वेद वाक्य का विरुद्ध अर्थ होना भी संभव है और विरुद्ध अर्थ संभावित होने से वेद में मिथ्यापनारूप अप्रमाणता आ जाती है ।
तथा यह शब्दार्थ का नित्य सम्बन्ध इन्द्रिय द्वारा गम्य है अथवा अतीन्द्रिय है या कि अनुमानगम्य है ? इन्द्रियगम्य तो हो नहीं सकता क्योंकि अपने इन्द्रियों द्वारा ( कर्ण तथा नेत्र ) असाधारण रूप से शब्दार्थ सम्बन्ध प्रतिभासित नहीं होता है ( इसका भी कारण यह है कि वाच्य वाचक का सामर्थ्य अतीन्द्रिय होता है ) शब्दार्थ सम्बन्ध अतीन्द्रिय है ऐसा कहे तो वह सम्बन्ध प्रतीति का निमित्त कैसे हो सकता है ? क्योंकि ज्ञापक अर्थात् प्रतीतिका हेतु नहीं हो सकता जो निश्चय रूप हो । सन्निधान होने मात्र से किसी को ज्ञापक माना जाय तो अति प्रसंग होगा।
शब्दार्थ का नित्य सम्बन्ध अनुमानगम्य होता है ऐसा कहे तो भी ठीक नहीं, क्योंकि हेतुका अभाव है, हैतु के बिना अनुमान की प्रवृत्ति नहीं होती, यहां नित्य सम्बन्ध को जानने के लिये हेतु ज्ञानको बनावे या अर्थको अथवा शब्दको ? ज्ञानको तो बना नहीं सकते क्योंकि सम्बन्ध ही प्रसिद्ध है तो उसके कार्य रूप इस ज्ञानका निश्चय कैसे होवे ? अभिप्राय यह है परवादी ज्ञानको पदार्थ का कार्य मानते हैं सो सम्बन्ध रूप पदार्थ के प्रसिद्ध रहने पर उसका कार्य रूप ज्ञान भी अनिश्चय स्वरूप ही होगा । सम्बन्ध को ज्ञात करने के लिये अर्थको हेतु बनाते हैं तो ठीक नहीं, क्योंकि
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