Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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अपोहवादः "नन्वन्यापोहकृच्छब्दो युष्मत्पक्षेऽनुवर्णितः । निषेधमात्रं नैवेह प्रतिभासेऽवगम्यते ॥१॥ किन्तु गौर्गवयो हस्ती वृक्ष इत्यादिशब्दतः । विधिरूपावसायेन मतिः शाब्दी प्रवर्तते ॥२॥"
[तत्त्वसं० का० ६१०-११ पूर्वपक्षे ] "यदि गौरित्ययं शब्दः समर्थोन्यनिवर्त्तने । जनको गवि गोबुद्धि (द्ध) ग्यतामपरो ध्वनिः ॥३॥ ननु ज्ञानफलाः शब्दा न चैकस्य फलद्वयम् । अपवादविधिज्ञानं फलमेकस्य वः कथम् ॥४॥ प्रागगौरिति विज्ञानं गोशब्दश्राविणो भवेत् । येनाऽगोः प्रतिषेधाय प्रवृत्तो गोरिति ध्वनिः ॥५॥"
_ [ भामहालं० ६।१७-१६ ]
ज्ञान में अन्यापोहरूप निषेध मात्र प्रतिभासित नहीं होता अपितु गो शब्द से गो का अस्तित्वरूप प्रतिभास ही होता है एवं गवय, हाथी, वृक्ष इत्यादि शब्द से अस्तित्व रूप अर्थ ही प्रतीत होता है न कि अन्यापोह रूप ॥१-२॥ भामह विरचित काव्यालंकार नामा ग्रंथ में भी इसी तरह कहा है-यदि “गौः” इस प्रकार का शब्द केवल अन्य अश्वादिकी निवृत्ति करने में समर्थ है तो गो पदार्थ में गो का ज्ञान कराने वाला कोई अन्य शब्द खोजना होगा ।।३।। बौद्ध कहे कि अन्य शब्द की खोज करना पड़े तो पड़ने दो ? सो भी बात नहीं क्योंकि शब्द ज्ञान रूप फलको उत्पन्न करने वाले माने हैं। किन्तु यह बात भी नहीं है कि वे विधि और निषेध रूप दो ज्ञानों को उत्पन्न कर सकते हों। अतः आप बौद्ध के यहां एक ही गो शब्द से अन्यापोह और अस्तित्व रूप दो ज्ञान उत्पन्न होना किस प्रकार स्वीकार किया है ? ।।४।। यदि शब्द अन्यापोह के वाचक है तो गो शब्द को सुनने वाले पुरुष को पहले "अगौः” इस प्रकार का ज्ञान होना था ? किन्तु होता तो नहीं । फिर आगे का प्रतिषेध करने के लिये गो शब्द प्रवृत्त होता है ऐसा किस प्रकार माना जाय अर्थात नहीं मान सकते ।।५।।
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