________________
शब्दनित्यत्ववादः अत्रापि सकृत्संस्कृतं श्रोत्रं युगपत्सर्ववर्णान् शृणुयात् । न ह्यञ्जनादिना संस्कृतं चक्षुः सन्निहितं नीलधवलादिकं कञ्चित्पश्यति कश्चिन्नेति । बलातैलादिना संस्कृतं श्रोत्रं वा कांश्चिदेव गकारादीन् शृणोति कांश्चिन्नेतीति नियमो दृष्टो येनात्रापि तथा कल्पना स्यात् । ततो निराकृतमेतत्
"तथा (यथा)घटादेर्दीपादिरभिव्यञ्जक इष्यते । चक्षुषोऽनुग्रहादेवं ध्वनिः स्याच्छ्रोत्रसंस्कृतेः ।।१।। न चा(च)पर्यनुयोगोत्र केनाकारेण संस्कृतिः । उत्पत्तावपि तुल्यत्वाच्छक्तिस्तत्राप्यतीन्द्रिया ॥२॥"
[ मो० श्लो० शब्दचि० श्लो० ४२-४३ ] इति ।
__ जैन--इस पक्ष में भी एक बार सुसंस्कृत हुया श्रोत्र युगपत् संपूर्ण वर्णों को सुन सकता है ऐसा पूर्वोक्त दोष आता ही है। प्रसिद्ध बात है कि अंजन आदि से सुसंस्कृत हुआ नेत्र निकटवर्ती नील धवल आदि वस्तु में से किसी को तो देखे और किसी को न देखे ऐसा नहीं होता अपितु नेत्र नीलादि सभी को देखती है । तथा बला तेल ( संपूर्ण शब्दोंको सुनने की शक्ति को उत्पन्न करने वाला कोई तेल ) द्वारा सुसंस्कृत हुअा श्रोत्र किन्हीं गकारादिको तो सुने और किन्हीं वर्णोंको न सुने ऐसा नहीं होता। इसी प्रकार यदि ध्वनि द्वारा श्रोत्र देश सुसंस्कृत होना मानते हैं तो सभी वर्ण उस श्रोत्र द्वारा सुनायी देते हैं ऐसा अनिष्ट मानने का प्रसंग अवश्य आता है ।
इसीलिये निम्नलिखित कथन भी निराकृत हुना समझना चाहिये कि – जिस प्रकार चक्षु के अनुग्रह से अर्थात चक्ष के संस्कार के निमित्त होने से दीपादिक घटादिपदार्थ के अभिव्यंजक माने जाते हैं उस प्रकार श्रोत्र संस्कार की ध्वनि अभिव्यंजक है ऐसा मानते हैं । इसमें व्यर्थ के प्रश्न नहीं करना चाहिये कि वह श्रोत्र संस्कार किसी रूप से होता है ? किसी एक ध्वनि द्वारा संस्कार होने पर सब वर्ण सुनायी देना चाहिये। क्योंकि शब्द की अभिव्यक्ति मानने के पक्ष में यदि ऐसे प्रश्न उठा सकते हैं तो शब्द की उत्पत्ति मानने के पक्ष में भी ये ही प्रश्न उठा सकते हैं। क्योंकि जिस तरह शब्द की अभिव्यक्ति की शक्ति अतीन्द्रिय है उस तरह शब्द की उत्पत्ति की शक्ति भी अतीन्द्रिय है, अतः उभय पक्ष में भी प्रश्न होना स्वाभाविक है ।।१।।२।। इत्यादि ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org