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शब्द नित्यत्ववादः
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शब्दनित्यत्ववाद के खण्डन का सारांश
मीमांसक-शब्द नित्य है क्योंकि अर्थ प्रतिपादन की अन्यथानुपपत्ति है, शब्द अनित्य होता तो उसमें संकेत नहीं हो सकता । शब्द और अर्थ का वाच्य वाचक संबंध तीन प्रमाणों से जाना जाता है । प्रत्यक्ष, अनुमान और अर्थापत्ति जब कोई पुरुष संकेत जानने वाले किसी दूसरे व्यक्ति को कहता है कि हे देवदत्त सफेद गाय को दण्डे से भगा दो, पास में कोई तीसरा पुरुष है जो संकेत ज्ञान से रहित है वह देवदत्त के द्वारा गाय को हटाता आदि को प्रत्यक्ष से देखकर शब्द और अर्थ समझ लेता है कि इस वाक्य का यह अर्थ है तथा गाय को हटाने की क्रिया से देवदत्त को तद-विषयक ज्ञान है ऐसा अनुमान लग जाता है । पुनश्च शब्द की वाचक शक्ति और पदार्थ की वाच्य शक्ति का ज्ञान अर्थापत्ति से होता है कि इस शब्द में पदार्थ को कहने की शक्ति है इत्यादि । जैन सदृश शब्द से अर्थ का बोध होना मानते हैं अर्थात् संकेत कालीन शब्द नष्ट होकर पदार्थ को जानते समय अन्य सदृश शब्द आता है उससे अर्थ ज्ञान होना मानते हैं । किन्तु ऐसा मानने पर शाब्दिक ज्ञान भ्रान्त सिद्ध होगा। गौ आदि शब्द गोत्वादि सामान्य के वाचक हैं या गो व्यक्ति के वाचक हैं यह भी विचारणीय है गो शब्द सामान्य का वाचक है ऐसा माने तो सामान्य नित्य होने से उसका वाचक शब्द भी नित्य होगा । गो व्यक्ति का वाचक गो शब्द है ऐसा माने तो गो के नष्ट होने पर गो शब्द का अस्तित्व समाप्त होगा। क्योंकि शब्द को अनित्य माना ? तथा ये लोग शब्द को अनेक मानते हैं, किन्तु वह भी ठीक नहीं सूर्य एक है तो भी अनेक देशों में अनेक रूप दिखता है वैसे शब्द भी एक होकर अनेक जगह उपलब्ध होता है । प्रत्यभिज्ञान से भी शब्द का एकत्व सिद्ध होता है अतः शब्द को एक नित्य एवं व्यापक मानना चाहिये।
जैन-यह मीमांसक का शब्द नित्यवाद अनेक दोषों से भरा हुआ है। आपको शब्द अनित्य मानने में यह अापत्ति दिखती है कि शब्द अनित्य होने पर अर्थ ज्ञान नहीं होगा, सो प्रयुक्त है, सदृश शब्द से अर्थ ज्ञान होता है अर्थात् किसी ने "गाय" यह शब्द कहकर बालक को संकेत किया कि इस पदार्थ को गाय कहना, अब जब कभी वह बालक पुन: गाय शब्द सुनता है तो वह शब्द संकेत किये गये शब्द के सदृश रहता है अतः उसको सुनते ही वह सास्नायुक्त पशु का ज्ञान कर लेता है । जैसे रसोई घर को अग्नि और धूम के सम्बन्ध का ज्ञान होने पर पुनः पर्वतादि में उस धूम के
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