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शब्दनित्यत्ववादः
धारिणः कस्मान्न सर्वदोपलभ्यन्ते इति चेत् ? स्वसामग्रयऽभावतोऽभावाच्छब्दसुखादिवत् । कश्चिद्धि विकारः सहकारि निवृत्तावप्यनिवर्तमानो दृष्टो यथा घटादिः, कश्चित्तु निवर्तमानो यथा शब्दादिः, अचिन्त्यशक्तित्वाद्भावानाम् । ताल्वादिव्यापारसहकारिनिवृत्तौ हि पुद्गलस्य श्रावणस्वभावव्यावृत्तिः। स्रग्वनितानिवृत्ती चाल्हादनाकारव्यावृत्तिरात्मनः सकल जनप्रसिद्धा, एवमादित्यादिसहकारिनिवृत्तौ जलादेस्तत्प्रतिबिम्बाकारनिवृत्तिरविरुद्धा।
समाधान- जल और सूर्य आदि रूप स्व सामग्री विशेष से उक्त प्रतिबिम्बों का प्रादुर्भाव होता है।
शंका-तो फिर स्वच्छता विशेष का सद्भाव हमेशा होने से जल और दर्पणादि पदार्थ मुख और सूर्य के प्रतिबिम्ब आदि के आकार को धारण करने वाले हमेशा क्यों नहीं दिखायी देते ?
समाधान-वे दर्पणादि पदार्थ स्व सामग्री का अभाव होने से हमेशा उक्त श्राकारों को हमेशा धारण करते हुए उपलब्ध नहीं होते जैसे कि स्व सामग्री के अभाव में शब्द की उपलब्धि नहीं होती एवं सुख की सामग्री के अभाव में सुख की उपलब्धि नहीं होती। कोई कोई विकार ऐसा होता है कि वह सहकारी कारण के निवृत्त होने पर भी ( हट जाने पर भी ) स्वयं निवृत्त नहीं होता जैसे घटादि पदार्थ रूप प्राकार को कराने वाले चक्र, दंडा आदि के निवृत्त होने पर भी जो मिट्टी का घटाकार रूप विकार निर्मित हुया वह बना ही रहता है। तथा कोई कोई विकार ऐसा होता है कि सहकारी कारणों के निवृत्त होने पर स्वयं भी निवृत्त हो जाता है जैसे शब्दादि विकार उनके सहकारी कारणभूत तालु आदि के व्यापार के निवृत्त होने पर ( हट जाने पर अथवा समाप्त होने पर ) स्वयं भी समाप्त हो जाते हैं। क्योंकि पदार्थों में विभिन्न प्रकार की अचिंत्य शक्तियां हुमा करती हैं उन विभिन्न शक्तियों के कारण ही इस प्रकार सहकारी के निवृत्त होने पर निवृत्त होना अथवा नहीं होना इत्यादि रूप प्रभेद दिखायी देता है । तालु आदि के व्यापार रूप सहकारी कारण के निवृत्त हो जाने पर शब्दरूप पुद्गल के श्रावण स्वभाव ( सुनायी देने की शक्ति ) की व्यावृत्ति ( निवृत्ति या समाप्ति ) हो जाती है । तथा माला वनिता आदि सहकारी कारणों के निवृत्त हो जाने पर आल्हाद रूप सुख की प्रात्मा से व्यावृत्ति हो जाती है यह बात सर्व जन प्रसिद्ध ही है । इसी तरह सूर्य आदि सहकारी कारणों के निवृत्त हो जाने पर जलादि में सूर्य के प्रतिबिंबाकार की निवृत्ति होती है, इसमें कोई विरोध नहीं ।
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