________________
शब्दनित्यत्ववादः
५११
अस्तु तय भयसंस्कारः । न चात्रोक्तदोषानुषङ्गः । तदुक्तम्
"द्वयसंस्कारपक्षे तु वृथा दोषद्वये वचः । येनान्यतरवैकल्यात्सर्वैः सर्वो न गृह्यते ।।१।।"
[ मी० श्लो. शब्दनि० श्लो० ८६ ] तदप्ययुक्तम्; उक्तदोषादेव, तथाहि-यदैकवर्णग्राहकत्वेन संस्कृतं श्रोत्रं संस्कृतं वर्ण प्रतिपद्यते तदा तत्रत्यसर्ववर्णान्प्रतिपद्येत संस्कृतं च वर्णं सर्वत्र सर्वदाऽवस्थितत्वेन, अन्यथा तत्प्रतीतिरेव न भवेत्तदात्मकत्वात्तस्य । अतो व्यङ्गयव्यञ्जकभावस्य विचार्यमाणस्याऽयोगान्न व्यंजकध्वन्यधीनो विभिन्न देशकालस्वभावतया शब्दस्योपलम्भोऽपि तु तत्स्वभावभेद निबन्धनः ।
मीमांसक-तो फिर उभय संस्कार ( शब्द तथा इन्द्रिय दोनों का संस्कार ) स्वीकार करना चाहिए अर्थात् उभय संस्कार से शब्द की अभिव्यक्ति होती है ऐसा मानना चाहिये । इस पक्ष में तो उक्त दोष नहीं आयेगा। जैसा कि कहा है-इन्द्रिय संस्कार और शब्द संस्कार दोनों संस्कारों के द्वारा शब्द की अभिव्यक्ति होती है ऐसा मानने पर भी दो दोष पाते हैं अर्थात् शब्द संस्कार के पक्ष में दिया हुअा और इन्द्रिय संस्कार के पक्ष में दिया हुप्रा इस तरह दो दोष उभय संस्कार के पक्ष में आते हैं ऐसा जैनादि परवादी कहे तो वह असत् है, क्योंकि दोनों संस्कारों में से किसी एक के नहीं होने के कारण ही सब वर्ण सबके द्वारा ग्रहण नहीं होते हैं ।।१।।
जैन- यह कथन भी अयुक्त है, क्योंकि इस पक्ष में वही दोष आते हैं। प्रागे इसी को बताते हैं-जब एक वर्ण को ग्राहकपने से सुसंस्कृत हुअा श्रोत्र सुसंस्कृत वर्ण को ग्रहण करता है ( सुनता है ) तब वहां पर स्थित जो सब वर्ण हैं उनको ग्रहण करेगा ही क्योंकि सुसंस्कृत ( संस्कारित हुअा ) वर्ण सर्वत्र सर्वदा अवस्थित ही रहता है, यदि सुसंस्कृत वर्ण को श्रोत्र ग्रहण नहीं करेगा तो उसकी प्रतीति ही नहीं होवेगी, इसका भो कारण यह है कि वर्ण हमेशा तदात्मक (उसी एक रूप) होता है । इसलिए शब्द और ध्वनि में व्यंग्य-व्यंजक भाव मानने का जो सिद्धांत है वह विचार करने पर प्रयुक्त साबित होता है। अतः विभिन्न देश काल एवं स्वभाव रूप से शब्द की उपलब्धि होना व्यंजक ध्वनि के अधीन नहीं है अपितु शब्द में स्वयं उस प्रकार का स्वभाव है कि वह क्रमशः ही उत्पन्न होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org