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प्रमेय कमल मार्त्तण्डे
" स एवेति मतिर्नापि सादृश्यं न च तत्क्वचित् । विनावयव सामान्यैर्वर्णेष्ववयवा न च ॥”
[ मी० श्लो० स्फोटवा० श्लो० १८ ] इति ।
अवयव सामान्यस्याप्यत्रात एव प्रसिद्ध: । तेनायुक्तमुक्तम्- 'पर्यायेण' इत्यादि, देवदत्ते हि 'स एवायम्' इति प्रत्ययः, अत्र तु 'तेनानेन चायं सदृशः' इति । न च सदृशप्रत्ययादेकत्वम्; गोगवययोरपि तत्प्रसंगात् । यद्यप्युच्यते
"जैनकापिल निर्दिष्टं शब्दश्रोत्रादिसर्पणम् । साधीयोsस्मात्तदप्यत्र युक्त्या नैवावतिष्ठते ॥ १॥”
[ मी० श्लो० शब्दनि० इलो० १०६ ]
द्वारा बाधित होते हैं । अतः जिसको मीमांसक प्रत्यक्ष रूप मानते हैं ऐसे प्रत्यभिज्ञान द्वारा शब्दों में एकत्व सिद्ध करना असंभव है ।
इसलिये निम्नलिखित कथन भी अनुचित है कि - गकार आदि वर्णों में "वही यह है" ऐसा जो एकत्व का ज्ञान होता है उसको असत्य नहीं मानना चाहिए, क्योंकि वर्णों में अवयव नहीं होते और श्रवयव सामान्यों के बिना उन गकारादि वर्णों की सादृश्य प्रतीति होना शक्य है || १ ||
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गकार आदि वर्णों के अवयव सामान्य अर्थात् अनेक पृथक् पृथक् गकार और उन सब में पाया जाने वाला सदृश सामान्य तो सादृश्यप्रतीति रूप हेतु वाले अनुमान द्वारा भलीभांति सिद्ध होता है । अतः मीमांसक का पूर्वोक्त कथन खण्डित होता है किपर्याय रूप से अर्थात् कालक्रम से एक ही देवदत्त विभिन्न देश में जाता है उसमें भेद नहीं मानते, वैसे शब्द में भी भेद नहीं मानना चाहिए । सो देवदत्त में तो “वही यह देवदत्त है" इस प्रकार की एकत्व प्रतीति निराबाध रूप से ग्राती है, किन्तु गकारादि शब्दों में तो उसके समान यह गकार है अथवा इस वर्ग के समान यह वर्ण है ऐसी सादृश्य प्रतीति प्रती | सादृश्य प्रतीति से एकत्व की सिद्धि करना तो ग्रनुचित है अन्यथा गाय और रोझ में भी एकत्व सिद्ध करना होगा ।
मीमांसक का कहना है कि - जैन और सांख्य क्रमशः शब्द और श्रोत्र का गमन होना मानते हैं सो यह इस वक्ष्यमान कल्पना से कुछ सही होते हुए भी हम मीमांसक की युक्ति द्वारा खंडित ही होता है || १ || अर्थात् जैन की मान्यता है कि शब्द
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