Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi

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Page 555
________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रदीपादिनानुगृहीतचक्षुषा पटाद्यनेकार्थग्रहणवत् ध्वन्यनुगृहीतश्रोत्रेणाप्येकदानेकशब्दश्रवणप्रसङ्गात् । प्रयोग:-श्रोत्रमेकेन्द्रियग्राह्याभिन्नदेशावस्थितार्थग्रहणाय प्रतिनियतसंस्कारकसंस्कार्यं न भवति इन्द्रियत्वाच्चक्षुर्वत् । तन्न श्रोत्रसंस्कारोप्यभिव्यक्तिर्घटते । भावार्थ-उपर्युक्त मीमांसा श्लोक वात्तिक ग्रन्थ के उद्धरण में यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि व्यंजक और कारक कारण समान होते हैं। अर्थात् मीमांसक का कहना है कि ध्वनियां शब्द को व्यक्त करती है ऐसा हम मानते हैं, इस मान्यता में जैन प्रश्न करते हैं कि ध्वनि द्वारा एक साथ सब शब्द ( वर्ण ) क्यों नहीं व्यक्त होते ? इत्यादि सो यह प्रश्न हम मीमांसक जैन के प्रति भी कर सकते हैं कि तालु आदि से शब्द उत्पन्न किये जाते हैं तो एक साथ सब शब्द क्यों नहीं उत्पन्न किये जाते इत्यादि । किन्तु जैनाचार्य ने इसका समाधान पहले ही दिया है कि व्यंजक कारण और कारक कारण समान नहीं होते इनका कार्य समान नहीं होता एक व्यंजक कारण रूप प्रदीप एक साथ अनेक घटादिको अभिव्यक्त ( प्रकाशित ) करता है किन्तु एक कारक कारण रूप यवबीज अनेक यवांकुरों को या शालि अंकुरों को उत्पन्न नहीं करता । यही तो कारक और व्यंजक में अंतर है -कारक तो उस वस्तु को नयी रूप से निर्माण करता है किन्तु व्यंजक ऐसा नहीं है वह तो केवल बनी बनायी वस्तु को प्रकाशित करता है । अतः यदि ध्वनि शब्द को केवल अभिव्यक्त करती है तो उसको एक साथ सब वर्गों को अभिव्यक्त करने का प्रसंग आता ही है। किन्तु तालु आदि के व्यापार से शब्द की उत्पत्ति मानने वाले जैन के पक्ष में ऐसा अति प्रसंग दोष नहीं होता। यदि मीमांसक ध्वनि द्वारा शब्द की अभिव्यक्ति होना ही मानते हैं तो जिस तरह प्रदीपादि से अनुग्रहीत ( सुसंस्कृत ) हुई चक्षु वस्त्र आदि अनेक पदार्थों को ग्रहण करती है ( देखती जानती है ) उस तरह ध्वनि से अनुग्रहीत ( सुसंस्कृत ) हा श्रोत्र भी एक साथ अनेक शब्दों को श्रवण कर सकता है ऐसा अनिष्ट मानने का प्रसंग अवश्य प्राता है। अनुमान प्रमाण से सिद्ध होता है कि-श्रोत्र एक ही इंद्रिय से ग्राह्य अभिन्न देश में अवस्थित पदार्थों को ग्रहण करने के लिये प्रतिनियत संस्कार द्वारा संस्कारित होने योग्य नहीं है, क्योंकि वह इन्द्रिय रूप है जैसे चक्षु इन्द्रिय रूप होने से प्रतिनियत संस्कारक द्वारा संस्कारित होने योग्य नहीं है । इस प्रकार श्रोत्र संस्कार को अभिव्यक्ति कहते हैं ऐसा कहना घटित नहीं होता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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