________________
५०८
प्रमेयकमलमार्तण्डे
-
अथेन्द्रियसंस्कारोसो। तदुक्तम्
"अथापीन्द्रियसंस्कारः सोप्यधिष्ठानदेशतः। शब्दं न श्रोष्यति श्रोत्रं तेनाऽसंस्कृतशष्कुलि ।।१॥ अप्राप्तकर्णदेशत्वाद्ध्वनेन श्रोत्रसंस्क्रिया। अतोऽधिष्ठानभेदेन संस्कार नियमस्थितिः ।।२।।
[ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ६९-७० ]
"यद्यपि व्यापि चैकं च तथापि ध्वनिसंस्कृतिः। अधिष्ठानेषु सा यस्य तच्छब्दं प्रतिपत्स्यते ॥१॥"
[ मी० श्लो० शब्दमि० श्लो० ६८ ] इति ।
उसी एक ध्वनिसे संपूर्ण वर्ण सुनायी दे सकनेसे ( क्योंकि सर्व वर्ण सर्वत्र मौजूद हैं ) अन्य ध्वनिका आक्षेप होनेका जो पक्ष है अर्थात् अन्य अन्य ध्वनिसे अन्य अन्य वर्ण प्रगट किये जाते हैं ऐसा जो मीमांसक का पक्ष है उसमें तो दोष आते ही हैं अर्थात् अन्य अन्य ध्वनिकी कल्पना व्यर्थ ठहरती है क्योंकि एक ध्वनि द्वारा संपूर्ण वर्ण प्रगट होना सिद्ध होता है। अतः शब्द संस्कार को अभिव्यक्ति कहते हैं और वह ध्वनिसे होती है इत्यादि कथन घटित नहीं होता ।
___ मीमांसक-ध्वनिसे इन्द्रिय का संस्कार होता है, जैसा कि कहा है-इन्द्रिय संस्कार वहां होता है जहां उसका अधिष्ठान देश है, जैसे श्रोत्रेन्द्रियका श्रोत्र देश है ( कर्ण की पोल ) सो श्रोत्र यदि संस्कार द्वारा सुसंस्कृत नहीं है तो वह शब्दको नहीं सुनेगा ।।१।। अन्य ध्वनि कर्ण देश में प्राप्त न होने से कर्ण संस्कार को कर नहीं सकती, अतः अधिष्ठान के विभिन्न होने से ध्वनि द्वारा होने वाले संस्कार का नियम ( अन्य अन्य ध्वनिसे अन्य अन्य श्रोत्रेन्द्रिय का संस्कार होना ) सिद्ध होता है ।।२।। यद्यपि श्रोत्र व्यापी और एक है तो भी उसके अधिष्ठान अनेक अनेक हैं उनमें से जिस अधिष्ठान में ध्वनि द्वारा संस्कार होता है वही श्रोत्राधिष्ठान उस शब्दको जानता ( सुनता ) है ॥३।। इत्यादि ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org