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प्रमेयकमलमार्तण्डे चाऽऽवार्यवर्णानां देशभेदो युक्तः; व्यापकत्वाभावप्रसंगात् । देशभेदो हि परस्परदेशपरिहारेणावस्थानात्प्रसिद्धो गोकुञ्जरवत् । तथा चावरणभेदस्याऽसतः कथं जातिभेदप्रकल्पनं तदपनेतृजातिभेदप्रकल्पनं च श्रेयो यतो 'जातिभेदश्च' इत्यादि शोभेत ।
नन्वेकेन्द्रियग्राह्यस्यापि व्यंगयस्य व्यंजकभेदो दृष्टः, यथा भूमिगन्धस्य जलसेकः न शरीरगन्धस्य । अस्यापि मरीचिचक्रसहायस्तैलाभ्यंगो न भूमिगन्धस्येति । सत्यं दृष्टः; स तु विषयसंस्कारकस्य व्यञ्जकस्य, न त्वावरणविगमहेतोः। नैव वा गन्धस्याभिव्यञ्जका जलसेकादयोऽपि तु कारकाः,
आवरण को हटाने वाले ध्वनि में जाति भेद की कल्पना करना श्रेयस्कर नहीं है, अतः आपके मीमांसा श्लोक वात्तिकका जाति भेदश्च...इत्यादि पूर्वोक्त कथन असत् ठहरता है ।
मीमांसक-जो व्यंग्य एक ही इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होता है उसमें भी व्यंजक का भेद देखा जाता है, जैसे - भूमिकी गंधका अभिव्यंजक जलसेक (पानी का सींचना) होता है यह जलसेक शरीरकी गंधका अभिव्यंजक नहीं है और शरीर गंधका अभिव्यंजक मरीचि आदि अनेक पदार्थका उवटन जिसमें सहायक है ऐसा तेलका अभ्यंग (मालिश) होता है वह उस भूमि गंधका अभिव्यंजक नहीं हो पाता, अभिप्राय यह है कि भूमिगंध और शरीर गंध ये दोनों व्यंग्यभूत एक ही घ्राणेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य हैं किन्तु इनके व्यंजक में भेद है।
जैन-ठीक है, किन्तु यह भेद विषय में संस्कार करने वाले व्यंजकका है न कि आवरण करने वाले कारण का । दूसरी बात यह है कि जलसेक आदिक भूमिगंधके अभिव्यंजक नहीं हैं अपितु कारक हैं ( उसको प्रगट करने वाले न होकर उत्पन्न करने वाले हैं) क्योंकि जलसेक आदिकी सहायता से पृथिवी आदि के विशिष्ट गंधकी उत्पत्ति ही होती है उसका भी कारण यह है कि जलसेकादि के सहायता के पहले उस गंधके सद्भाव को सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है कि जिससे पृथिवी में गंध पहले था और उसको जलसेक ने व्यक्त किया ऐसा सिद्ध हो सके । हां जो कारकभूत कारण होते हैं उनमें यह नियम देखा जाता है कि एक इन्द्रिय ग्राह्य होने पर एवं समान देश में होने पर भी उस कार्य का कारण एक नहीं होता। जैसे एक देश में स्थित होने पर भी सभी यवबीजादि शालिके अंकुर को और यवके अंकुर को उत्पन्न नहीं करते किन्तु शालिबीज ही शालिके अंकुरको उत्पन्न करता है और यवबीज ही यव के अंकुरको उत्पन्न करता है। इस तरह शब्दके प्रावरण में भेद मानना खंडित होता है।
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