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प्रमेयकमलमार्तण्डे
"व्यंजकानां हि वायूनां भिन्नावयवदेशता । जातिभेदश्च तेनैवं संस्कारो व्यवतिष्ठते ।।१।। अन्यार्थ प्रेरितो वायुर्यथान्यं न करोति वः । तथान्यवर्णसंस्कारशक्तो नान्यं करिष्यति ।।२।। अन्यैस्ताल्वादिसंयोगैर्वर्णो नान्यो यथैव हि। तथा ध्वन्यन्त राक्षेपो न ध्वन्यन्तरसारिभिः ।।३।। तस्मादुत्पत्त्य भिव्यक्त्योः कार्यार्थापत्तितः समः । सामर्थ्य भेदः सर्वत्र स्यात्प्रयत्नविवक्षयोः ॥४॥"
[ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ७९-८२ ]
एक वर्ण के समान निखिल वर्णों की उपलब्धि होने का प्रसंग आता है, क्योंकि व्यापक होने के कारण निखिल वर्णों का वहां पर ( जहां आवरण विगम हुआ है ) सद्भाव है, और इस तरह सब वर्णों की उपलब्धि हो जाने पर अन्य ध्वनियां व्यर्थ ठहरती है ।
मीमांसक-पावार्य शब्दों के समान पावारक (स्तिमित वायु) एवं आवारक का विगम करने वाली ध्वनियां इनमें भेद पाया जाता है अतः उपर्युक्त दोष नहीं प्राता। कहा भी है--व्यंजक वायुओं के भिन्न भिन्न अवयव देश होते हैं। तथा जाति भेद भी होते हैं अतः वर्णोंका इस प्रकार का संस्कार सिद्ध होता है ।।१।। शब्दों की उत्पत्ति मानने वाले आप जैनों के यहां जिस प्रकार अन्य अर्थके लिये ( अन्य शब्दके लिये ) प्रेरित हुई वायु किसी अन्यको नहीं करती अर्थात् तालु आदि के व्यापार रूप वायु प्रति नियत चकार इकार आदिको करती है अन्य टकार ऋकार आदिको नहीं उसी प्रकार उक्त वायु द्वारा शब्दोंका संस्कार होना मानने वाले हम मीमांसक के यहां अन्य वर्ण के संस्कार करने में शक्ति रखने वाली वायु किसी अन्य वर्ण के संस्कार को नहीं करती ऐसा सिद्ध होगा ही ।।२।। तथा जिस प्रकार अन्य तालु आदिके संयोग से अन्य वर्ण नहीं किया जाता ऐसा आप जैन मानते हैं उसी प्रकार अन्य ध्वनि द्वारा होने वाला शब्द संस्कार अन्य कोई ध्वनियों द्वारा नहीं किया जाता ऐसा हम मीमांसक मानते हैं ।।३।। इसलिये उत्पत्ति पक्ष और अभिव्यक्ति पक्ष इनमें कार्य की अर्थापत्ति समान ही दिखायी देती है। अर्थात् जैन उत्पत्तिरूप कार्य की अर्थापत्तिसे शब्द की सिद्धि करते हैं और मीमांसक अभिव्यक्तिरूप कार्य की प्रर्थापत्ति से उसकी सिद्धि करते
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