Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
"नैकान्तिकता तावद्धे तनामिह कथ्यते । प्रयत्नानन्तरं दृष्टिनित्येपि न विरुद्धयते ॥ १॥"
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[ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १६ ]
"श्राकाशमपि नित्यं सद्यदा भूमिजलावृतम् । व्यज्यते तदपोहेन खननोत्सेचनादिभिः ॥ २ ॥
प्रयत्नानन्तरं ज्ञानं तदा तत्रापि दृश्यते । तेनानैकान्तिको हेतुर्यदुक्तं तत्र दर्शनम् ||३||
अथ स्थगितमप्येतदस्त्येवेत्यनुमीयते । शब्दोपि प्रत्यभिज्ञानात्प्रागस्तीत्यवगम्यताम् ||४|| '
तालु ग्रादि के व्यापार के अनंतर शब्द उपलब्ध होने से उसका कार्य है । सो यह कथन नैकान्तिक होता है क्योंकि उसके अनंतर उपलब्ध होने मात्र से कोई उसका कार्य नहीं बन जाता । जैसा कि कहा है-पक्ष विपक्ष दोनों में हेतुके जाने से अनेकांतिक दोष आता है किन्तु यहां शब्द के विषय में दूसरी बात है अर्थात् " शब्द नित्य है क्योंकि वह प्रकृतक है" ऐसा हमारा अनुमान प्रमाण है, सो उसमें तालु प्रादि के व्यापार के अनंतर शब्द के उपलब्ध होने से शब्द उसका कार्य रूप सिद्ध होने से अनित्य के कोटी में आ जाता है ऐसा प्रकृतकत्व हेतु में अनैकांतिकपना उपस्थित करना ठीक नहीं, क्योंकि नित्य वस्तु भी प्रयत्न के ( व्यापार के ) अनंतर उपलब्ध हो सकती है कोई विरोध नहीं है ।। १ ।। इसी का स्पष्टीकरण करते हैं - प्रकाश भी नित्य होता है किन्तु भूमि जल आदि से श्रावृत होने पर उसके प्रावरण को खनन उत्सेधन ( खोदना पानी को निकाल देना ) आदि क्रिया द्वारा हटाने पर वह आकाश उपलब्ध ( प्रगट ) होता है । उससमय उस नित्य प्रकाश में भी " प्रयत्न के अनंतर हुआ" ऐसा ज्ञान हो जाया करता है । अतः उपर्युक्त शब्द के प्रकृतकत्व हेतु को अनैकांतिक कहना असत् है ||२||३|| प्रथवा इस प्रकृतक हेतु वाले अनुमान को थोड़ी देर के लिये स्थगित कर दीजिये, तो भी अन्य अनुमान से भी शब्द की नित्यता सिद्ध होती है । वह इस प्रकार है- शब्द नित्य है क्योंकि प्रत्यभिज्ञान से उसका अस्तित्व तालुव्यापार के पूर्व में भी सिद्ध होता है ॥४॥ इत्यादि ।
[ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ३०-३३ ]
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