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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
स्यात् । सर्वत्र सर्वदा सर्वात्मना विद्यमानत्वान्न दोषश्चेत्; नैवम्; प्रतिप्रदेशमकारादिबहुत्वस्य ध्वन्यादिवैफल्यस्य चानुषंगात्, तदभावेप्यन्तराले उपलम्भसम्भवात् । प्रथान्तरालेऽसन्तोप्यावारकाः; तह्यकमेवावारकं प्रदेशनियतं कल्पनीयं किं तद्बहुत्वेन ? अन्यत्राविद्यमानं कथमावारकमिति चेत् ? अंतराल - वदिति ब्रूमः । तन्नसान्तराः । निरन्तरत्वे चैषाम् तद्वच्छन्दस्यापि निरन्तरत्वादावार्यावारकभावः समान एवोभयत्र । अथ वस्तुस्वाभाव्यात् स्तिमिता वायव एव तदावारकाः ननु दृष्टे वस्तुन्येतद्वक्तु
जैन — तो फिर आवारक रहित बीच के स्थान में शब्द की उपलब्धि होने का प्रसंग आयेगा, और इस तरह होने पर शब्दों की प्रतीति सांतर होने लगेगी एवं प्रत्येक वर्ण की खंड खंड रूपसे प्रतीति होने लगेगी ।
मीमांसक -- - शब्द सर्वत्र सर्वदा सर्वात्म रूपसे विद्यमान रहने से खंडशः प्रतीति होने का प्रसंग नहीं आयेगा ।
जैन - - ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि इस तरह मान लेने पर प्रत्येक प्रदेश में बहुत से प्रकार, इकार आदि हैं ऐसा मानना होगा एवं उनकी अभिव्यंजक ध्वनियां भी व्यर्थ हो जायेंगी, क्योंकि ध्वनियों के नहीं होने पर भी आवारक के अंतराल में शब्द की उपलब्धि होना शक्य है ।
मीमांसक -- यद्यपि अंतराल में [ शब्द और ग्रावारक के बीच में ] आवारक नहीं हैं तो भी वे शब्दों को प्रवृत करते हैं ?
जैन - तो फिर प्रदेश में नियत कोई एक ही आवारक मानना चाहिये ? बहुत से प्रावारक मानने में क्या लाभ है |
मीमांसक - अन्य प्रदेश में आवारक नहीं रहेगा तो वह शब्द को प्रवृत कैसे करेगा ?
जैन-जैसे अंतराल में नहीं रहते हुए भी आवारक शब्द को प्रावृत करता है वैसे अन्य प्रदेश में नहीं रहते हुए उसको आवृत कर सकते हैं कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार आवारकों को सांतर मानने के पक्ष में दोष आते हैं । दूसरा निरंतर का पक्ष माने तो शब्द के समान ग्रावारक भी निरंतर होने से इनमें आवार्य आवारक समान रूप से लागू होगा अर्थात् आवारक शब्द को प्रावृत कर सकते हैं तो शब्द भी प्रावारक को प्रावृत कर सकेंगे ।
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