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शब्दनित्यत्ववादः
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शक्यम्, यथा दृष्टेऽग्नौ दाहकत्वेन 'वस्तुस्वाभाव्यादग्निदहति न जलम्' इत्युच्यते । न च तथाविधा वायवो दृष्टाः । नापि सन् शब्दस्तैराब्रियमाणो येनैवं स्यात् । अदृष्टकल्पनमुभयत्र समानम् । तन्न किंचित्तस्यावारकम् ।
अस्तु वा तत्, तथाप्यस्य कुतो विगम: ? ध्वनिभ्यश्चेत्, न; तत्सद्भावावेदकप्रमाणप्रतिषेधतस्तेषामसत्त्वात् । सत्त्वे वा कुतस्तेषामुत्पत्तिः ? ताल्वादिव्यापाराच्चेत्, न; तद्वच्छब्दस्यापि तद्व्यापारे सत्युपलम्भतस्तत्कायंतानुषंगात् । ननु खननाद्यनन्तरं व्योमोपलभ्यते, न च तत्कार्यमतोऽनैकान्तिकत्वम् । तदुक्तम्
मीमांसक-वस्तु स्वभावही ऐसा है कि स्तिमित वायु रूप अावारक ही शब्द को आवृत कर सकते हैं, शब्द उनको आवृत नहीं कर सकते ?
जैन - दृष्ट (प्रत्यक्ष) वस्तु में इस तरह कह सकते हैं, जैसे कि अग्नि में दाहक गुण देखकर कहते हैं कि अग्नि वस्तु स्वभाव के कारण ही जलाती है, जल नहीं जला सकता इत्यादि । किन्तु अग्नि के समान स्तिमित वायु तो दृष्टिगोचर नहीं है, न शब्द ही उनके द्वारा प्रावृत होता हुआ दृष्टिगोचर होता है जिससे कि वैसा मान लेवे । यदि अदृष्ट बिना देखे हो वैसी कल्पना करनी है तो दोनों प्रकार से कर सकते हैं अर्थात् शब्द को वायु प्रावृत करतो है तो शब्द वायु को क्यों नहीं आवृत करता ? इसलिये उस शब्द की कोई आवारक रूप वस्तु सिद्ध नहीं होती। .
जैसे तैसे मान लेवे कि शब्द का प्रावारक है तो भी उस आवारक का विगम ( हटाना, नष्ट होना ) किनसे होगा ? ध्वनि से होगा कहो तो ठीक नहीं, क्योंकि ध्वनियों के सद्भाव को सिद्ध करने वाले प्रमाण का निषेध हो चुका है अतः उनका अभाव ही है । यदि हटाग्रहसे अस्तित्व मान भी लेवे तो उनकी उत्पति किससे होगी ? तालु, ओठ आदि के व्यापार से ध्वनियों की उत्पत्ति होती है ऐसा कहो तो ठीक नहीं, क्योंकि यदि तालु अादि के व्यापार से ध्वनि को उत्पत्ति होती है तो उसो व्यापार से शब्द की उत्पत्ति भी संभव है, उस व्यापार के होने पर शब्द की उपलब्धि भी पायी जाती है अतः शब्द उसी का कार्य है।
.. मीमांसक-पृथ्वी खोदकर पोल होती है उसमें अाकाश ( मीमांसक आदि परवादियों ने ठोस जगह में आकाश को आवृत माना है ) उत्पन्न हुआ ऐसा कहा जाता है किन्तु वह खनन क्रिया का कार्य नहीं कहलाता, अतः जैन ने अभी जो कहाकि
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