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शब्दनित्यत्ववादः
४६६ स्यात् । तद्वत्तदावारकमपि सर्वगतमिति चेत्, न तावारकम् । न ह्याकाशमात्मादीनामावारकम् । मूर्त्तत्वात्तदिति चेत्; न तर्हि सर्वगतं घटादिवत् ।
अथ यावद्वयोमव्यापिनो बहव एवास्यावारकाः ते; किं सान्तराः, निरन्तरा वा ? यदि सांतराः; न तर्हि तस्यावरणम्, तन्मध्ये तद्देशे तत्पार्वे च विद्यमानत्वात् । अथ स्वमाहात्म्यात्तथापि स्वदेशे तदावारकाः; तान्तराले तदुपलम्भप्रसंगः। तथा च सान्तरा प्रतिपत्तिः प्रतिवणं खण्डशः प्रतिपतिश्च
मीमांसक शब्द को सर्वगत मानते हैं, सर्वगत रूप इस शब्द में यात्रियमाणत्वका ( ढकने योग्य होने का ) प्रयोग ही रहेगा। इसी का आगे खुलासा करते हैं-पावार्य ( आवरण करने योग्य ) पदार्थ जिसके द्वारा आवृत किये जाते हैं उसे आवारक कहते हैं, जैसे वस्त्र घट का आवारक है। किन्तु शब्द में यह सब घटित नहीं होता, क्योंकि शब्द तो आवारक के मध्यमें उसके देशमें उसके पास में सर्वत्र ही विद्यमान रहने से वह किस प्रकार आवृत किया जा सकता है ? बल्कि शब्द ही उस आवारक का प्रावारक बन बैठेगा।
मीमांसक-शब्द के समान शब्द का आवारक भी सर्वगत है ?
समाधान-तो फिर उसे आवारक ही नहीं कहेंगे, क्योंकि सर्वगत रूप पदार्थ आवारक हो और वह सर्वगत पदार्थ को प्रावृत करे ऐसा देखा नहीं जाता जैसे सर्वगत आकाश सर्वगत आत्मा को प्रावृत नहीं करता।
___मीमांसक-आकाश अमूर्त है अतः आवारक नहीं किन्तु यह शब्द का प्रावारक मूर्त है अतः उसको प्रावृत कर सकता है ?
जैन-तो फिर उसे सर्वगत नहीं मान सकते जैसे घटादि मूर्त होने से सर्वगत नहीं कहलाते ।
मीमांसक - अाकाश तक व्यापक ऐसे बहुत से आवारक मानेंगे ?
जैन--ठीक है, किन्तु वे सांतर हैं कि विरंतर ? यदि सांतर हैं तो शब्द का आवरण नहीं कर सकते, क्योंकि आवारक के मध्य में, देश में एवं उसके पास सर्वत्र ही शब्द विद्यमान है।
मीमांसक-- शब्द के सर्वत्र विद्यमान रहते हुए भी वे ग्रावारक अपने माहात्म्य से अपने स्थान पर शब्दों को प्रावृत करते हैं।
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