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प्रमेय कमलमार्तण्डे
नित्यस्याऽस्याऽनाधेयाऽप्रहेयाऽतिशयात्मतयाऽस्याकिचित्करत्वाच्च । न चाऽकिंचित्करः कस्यचिदावरणमलिप्रसंगात् । उपलब्धिप्रतिबन्धकारणात्तच्चेत्; न; तज्जननैकस्वभावस्य तदयोगात् । न हि कारणाऽक्षये कार्यक्षयो युक्तस्तस्याऽतत्कार्यत्वप्रसंगात् । कथमेवं कुड्यादयो घटादीनामावारका इति चेत्; तज्जनकस्वभावखण्डनात् । कथमन्यस्योपलब्धि जनयन्तीति चेत् ? तं प्रति तत्स्वभावत्वात् । कथमेकस्योभयरूपता ? इत्यप्यचोद्यम्; तथा दृष्टत्वात् । शब्दस्यापि स्वभावखण्डनेऽनित्यतेत्युक्तम् ।
सर्वगतत्वे चास्यात्रियमारणत्वायोगः। आवार्या हि येनावियते तदावारकम्, यथा पटो घटस्य । शब्दस्त्वावारकमध्ये तद्देशे तत्पार्वे च सर्वत्र विद्यमानत्वात्कथं केनचिदावियेत ? प्रत्युत स एवावारकः
शंका-शब्द का आवरण अकिंचित्कर नहीं होगा क्योंकि वह शब्द के उपलब्धि का प्रतिबंध करना रूप कार्य करता है ?
समाधान- ऐसा नहीं हो सकता, उसके जनन रूप एक स्वभाव का उसमें अयोग है । कारण के रहते हुए कार्य का क्षय होना तो युक्त नहीं अन्यथा वह उसका कार्य ही नहीं कहलायेगा।
शंका-यावरण को इस तरह का माना जाय तो घटादि पदार्थों के भित्ति आदिक आवारक किस प्रकार कहे जाते हैं ?
समाधान-घटादि में उपलब्धि को उत्पन्न करने का जो स्वभाव है उस स्वभाव का भित्ति आदिक खंडन करते हैं अर्थात् घटादि की उपलब्धि नहीं होने देते अतः वे उनके आवारक कहलाते हैं ।
___ शंका-यदि ऐसा है तो भित्ति के इस तरफ स्थित अन्य पुरुषको वे घटादिक उपलब्धि को कैसे उत्पन्न कर देते हैं ?
समाधान- उसके प्रति उपलब्धि स्वभाव मौजूद है, उसका खंडन नहीं हुया है। यदि कहा जाय कि एक ही घट में किसी के प्रति तो उपलब्धि स्वभाव और किसी के प्रति अनुपलब्धि स्वभाव ऐसी उभयरूपता कैसे हो सकतो है ? सो यह प्रश्न भी व्यर्थ का है, क्योंकि ऐसा देखा ही जाता है। घट के समान शब्द के स्वभाव का खंडन होना स्वीकार करेंगे तो उसको अनित्य मानना होगा । इस विषय में पहले से ही कहते आ रहे कि स्वभाव का परिवर्तन, स्वरूप का परिपोष, स्वभाव का खंडन आदि जिसमें संभव है वह पदार्थ अनित्य कहलाता है ।
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