Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
View full book text
________________
४६६
प्रमेयकमलमार्तण्डे
"विषयस्यापि संस्कारे तेनैकस्यैव संस्कृतिः। नरैः सामर्थ्य भेदाच्च न सर्वैरवगम्यते ॥१॥ यथैवोत्पद्यमानोयं न सर्वैरवगम्यते । दिग्देशाद्य विभागेन सर्वान्प्रति भवन्नपि ।।२।। तथैव यत्समीपस्थैर्नादैः स्याद्यस्य संस्कृतिः। तैरेव श्रूयते शब्दो न दूरस्थैः कथञ्चन ॥३॥"
[ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ८३-८६ ] इति । तदप्यपेशलम्; तेषां तदुपलम्भाऽसामर्थ्य सर्वदाऽनुपलम्भप्रसंगाद्वधिरवत् । यदा तत्समीपस्थैय॑जकैय॑ज्यतेऽसौ तदा तैरेवोपलभ्यते इत्यप्यसुन्दरम्; यतस्तेषां व्यंजकैः किं क्रियते येन ते तैनिय
मीमांसक-प्रतिनियत ध्वनि द्वारा प्रनिनियत वर्ण संस्कृत ( संस्कारित ) किया जाता है एवं प्रतिनियत पुरुष से ही उसकी प्रतीति होती है, क्योंकि वैसी ही सामर्थ्य देखी जाती है । कहा भी है-विषय का संस्कार माने तो उस संस्कार में भी उक्त ध्वनि द्वारा एक का ही संस्कार किया जाता है, तथा प्रतिपत्ता पुरुषों में सामर्थ्य भेद होने से भी सभी पुरुषों द्वारा सब वर्ण ग्रहण में नहीं आते ।।१।। शब्द संस्कार रूप से उत्पद्यमान यह शब्द जिस प्रकार दिशा और देश आदिके अविभाग से सबके प्रति होता हुअा भी सबके द्वारा ज्ञात नहीं होता, उसी प्रकार जिस पुरुष के समीपवर्ती ध्वनि द्वारा जिस शब्दका संस्कार हुआ है उन्हीं पुरुषों से वही शब्द सुनायी देता है, दूरस्थ पुरुषों द्वारा किसी प्रकार भी सुनायी नहीं देता ।।२।।३।।
जैन- उपर्युक्त सारा कथन प्रयुक्त है, क्योंकि पुरुषों में शब्द ग्रहण की सामर्थ्य नहीं मानी तो उनको शब्दका सर्वदा अनुलंभ ही रहेगा जैसा बधिर पुरुषोंको रहता है।
शंका-जब उस पुरुष के समीपस्थ व्यंजक ध्वनि द्वारा वह शब्द अभिव्यक्त होता है तब उसी पुरुष द्वारा वह उपलब्ध किया जाता है अतः सर्वदा अनुपलंभ होने का प्रसंग नहीं पाता?
समाधान---यह कथन असुन्दर है, व्यंजक ध्वनि द्वारा उनका क्या किया जाता है कि जिसके कारण वे नियम से उन व्यंजकों की अपेक्षा करते हैं ? क्योंकि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org