Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
View full book text
________________
४६४
प्रमेयकमल मार्तण्डे प्रसिद्धः । यदस्माभिः 'श्रावणस्वभावविनाशोत्पत्तिमत्पुद्गलद्रव्यम्' इत्यभिधीयते तद्युष्माभिः 'वर्णः' इत्याख्यायते । यो च श्रावणस्वभावोत्पादविनाशौ शब्दोत्पादविनाशावस्माभिरिष्टौ तौ युष्माभिः शब्दाभिव्यक्तितिरोभावाविति नाम्नव विवादो नार्थे । दृश्येतररूपता चैकस्य ब्रह्मवादं समर्थयते तद्वच्चेतनेतररूपतयाप्येकस्याऽवस्थित्यविरोधात् । घटादेरपि चैवं सर्वगतत्वानुषंग:-'सोपि हि दृष्टप्रदेशे दृश्योऽन्यत्र चादृश्यः' इति वदतो न वक्त्रं वक्रीभवेत् । सर्वत्र चास्य संस्कारे सर्वदोपलब्धिः स्यात्, न वा क्वचित्कदाचित् विशेषाभावात् ।
स्वरूपपरिपोषः संस्कारोस्य; इत्यप्यऽचचिताभिधानम्; नित्यस्य स्वभावान्यथाकरणाऽसम्भवात् । करणे वा स्वभावातिशयपक्ष भावी दोषोनूषज्यते ।
रूप से मौजूद रहता ही है तो एक ही शब्द में दृश्यत्व और अदृश्यत्वका प्रसंग आने से उसको निरंश मानने का सिद्धांत गलत साबित होता है, तथा दृश्य और अदृश्य स्वभावका परिवर्तन मानने से शब्द में परिणामीपना भी सिद्ध होता है अतः जैन और मीमांसकका शब्दविषयक विवाद भी समाप्त होता है। क्योंकि जिसको हम कर्ण द्वारा सुनायी देना रूप स्वभाव वाला विनाश एवं उत्पत्तिमान पुद्गल द्रव्य नाम देते हैं उसी को श्राप 'वर्ण' इस नामसे कहते हैं । तथा जिसको हम श्रावण स्वभावका उत्पाद विनाश होना रूप शब्दका उत्पाद विनाश मानते हैं उसीको अाप शब्दकी अभिव्यक्ति तिरोभाव कहते हैं, इस तरह केवल नाम में विवाद रहा न कि अर्थ में। दूसरी बात यह है कि यदि आप मीमांसक एक ही शब्द में दृश्यत्व और अदृश्यत्व मानते हैं तो इस मान्यतासे ब्रह्मवादका समर्थन हो जाता है, क्योंकि जिसप्रकार दृश्यत्व और अदृश्यत्वकी एकमें (शब्द में) अवस्थिति हो सकती है उस प्रकार चेतन और अचेतनकी भी एक में (ब्रह्म में) अवस्थिति होना अविरुद्ध होगा। केवल कर्ण प्रदेश में उपलब्ध होते हुए भी शब्दको सर्वगत माना जाय तो घटादि पदार्थको भी सर्वगत मानने का प्रसंग आयेगाउसके विषय में भी कह सकते हैं कि दृष्ट प्रदेश में घट दृश्य रहता है और अन्यत्र अदृश्य । ऐसा कहते हुए कोई मुख तो वक्र नहीं होता। केवल कर्ण प्रदेश में शब्दका संस्कार न होकर सर्वत्र होता है ऐसा दूसरा विकल्प माने तो हमेशा शब्दकी उपलब्धि होगी क्वचित् कदाचित् नहीं, क्योंकि सर्वत्र शब्द संस्कार हो चुका है कोई भेद विशेष नहीं रहा।
. स्वरूप का परिपोष होना शब्द संस्कार कहलाता है ऐसा चौथा विकल्प भी चर्चा योग्य नहीं, क्योंकि नित्यके स्वभावका अन्यथाकरण असंभव है अर्थात् जब शब्द
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org