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प्रमेयकमलमार्तण्डे इति; तत्र केयं विशिष्टा संस्कृति म-शब्दसंस्कारः, श्रोत्रसंस्कारः, उभयसंस्कारो, वा ? परेण हि त्रेधा संस्कारोऽभ्युपगम्यते । स च - "स्याच्छब्दस्य हि संस्कारादिन्द्रियस्योभयस्य वा।"
[ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ५२ ] “स्थिरवाय्यपनीत्या च संस्कारोस्य भवन्भवेत् ।”
[ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० ६२ ] इत्यभिधानात् ।
तत्राद्ये पक्षे कोयं शब्दसंस्कार:-शब्दस्योपलब्धिः, तस्यात्मभूपः क्वचिदतिशयः, अनतिशयव्यावृत्तिर्वा, स्वरूपपरिपोषो वा, व्यक्तिसमवायो वा, तद्ग्रहणापेक्षग्रहणता वा, व्यंजकसन्निधानमात्रं
__ जैन- यह सब वर्णन तब ठीक हो सकता जब आपका यह विशिष्ट संस्कृति अर्थात् संस्कार सिद्ध हो, बताइये कि संस्कृति किसे कहते हैं। शब्द संस्कार को या कर्ण संस्कार को अथवा उभय संस्कार को ? क्योंकि आपके यहां शब्द के लिये ये तीन प्रकार के संस्कार माने जाते हैं जैसा कि कहा है कि-शब्द के संस्कार से या इंद्रियों के संस्कार से अथवा उभय के संस्कार से शब्द की अभिव्यक्ति होती है इत्यादि । शब्द का संस्कार स्थिर वायु की अपनीति से (स्थिर वायु के हट जाने से) होता है । इस प्रकार आपके यहां माना है। प्रथम पक्ष- शब्द के संस्कार को विशिष्ट संस्कृति कहते हैं ऐसा माने तो शब्द संस्कार का अर्थ क्या होता है शब्द की उपलब्धि होने को शब्द संस्कार कहते हैं अथवा उस शब्द का कहीं पर आत्मभूत अतिशय होने को, अनतिशयकी व्यावृत्ति होने को, स्वरूप के परिपोष होने को, व्यक्ति में समवाय होने को, व्यक्तिग्रहण की अपेक्षा से उसकी ग्रहणता होने को, व्यंजक का सन्निधान होने को अथवा आवरण का विगम होने को ? शब्द की उपलब्धि होने को शब्दसंस्कार कहते हैं तो यह ध्वनियों की गमक कैसे होगी, क्योंकि शब्दोपलब्धि तो केवल श्रोत्र से होती है, फिर उसमें अन्य निमित्त की कल्पना करे तो हेतुओं का कोई नियम ही नहीं रहेगा कि अमुक वस्तुका अमुक निमित्त है ।
__शब्द का आत्मभूत कोई अतिशय होनेको शब्दसंस्कार कहते हैं अथवा अनतिशय व्यावृत्ति होने को शब्द संस्कार कहते हैं ऐसे दो पक्ष भी ठीक नहीं, आगे इसीको कहते हैं- अतिशय दृश्य स्वभाव वाला ही होता है और अनतिशय व्यावृत्ति
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