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शब्दनित्यत्ववादः
वा श्रावरण विगमो वा स्यात् ? यदि शब्दोपलब्धिः कथमसौ ध्वनीनां गमिका शब्दे श्रोत्रमात्रभावि त्वात्तस्याः ? तथाप्यन्यनिमित्तकल्पने हेतूनामनवस्थितिः स्यात् ।
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तस्यात्मभूतः कश्चिदतिशयोऽनतिशयव्यावृत्तिर्वा इत्यत्रापि अतिशयो दृश्यस्वभाव एव, नतिशयव्यावृत्तिस्त्वदृश्यस्वभावखण्डनमेव । ते चेत्ततोऽन्ये; तत्कररोपि शब्दस्य न किञ्चित्कृतमिति तस्थास्याश्रुतिः । अथाऽनन्ये; तदा शब्दस्यापि कार्यतया प्रनित्यत्वानुषंगः । यो हि यस्मादसमर्थस्वभाव परित्यागेन समर्थस्वभावं लभते स चेन्न तस्य जन्यः क्वेदानीं जन्यताव्यवहारः ? न च समर्थ - स्वभाव एव जन्यो न शब्दः इत्यभिधातव्यम्; तस्याऽतो विरुद्धधर्माध्यासतो भेदानुषंगात् । तत्र चोक्तो दोषः ।
श्रोत्र प्रदेशे एव चास्य संस्कारे तावन्मात्रक एव शब्दः, न सर्वगतः स्यात् । तस्यैवान्यत्र तद्विपर्ययेणावस्थाने दृश्याऽऽदृश्यत्वप्रसंगात् निरंशत्वव्याघातो विप्रतिपत्त्यभावश्चास्य परिणामित्व -
अदृश्य स्वभावका खंडन स्वरूप ही है, अब यदि ये दोनों प्रकार के शब्द संस्कारशब्द से अन्य हैं और इनको ध्वनियों द्वारा किया जाता है तो ध्वनियों ने शब्द का तो कुछ भी नहीं किया, अतः इस शब्द का प्रश्रवण पूर्ववत् रहेगा, अर्थात् उक्त संस्कारों के हो जाने पर भी चूंकि वे शब्द से पृथक हैं अतः शब्द अभिव्यक्त न होने के कारण सुनायी नहीं देगा | उक्त दोनों प्रकार के संस्कार शब्द से ग्रभिन्न हैं ऐसा माने तो शब्द कार्य रूप सिद्ध होने से अनित्य बन जायगा । अर्थात् शब्द से अभिन्न ऐसा जो आत्मभूत अतिशय आदि है उसको ध्वनियों ने किया तो इसका मतलब शब्द को ही किया, जो किया गया है वह अनित्यरूप होता ही है । क्योंकि जो जिससे असमर्थ स्वभावका परित्याग करके समर्थ स्वभावको प्राप्त करता है वह स्पष्ट रूप से उसका कार्य है फिर भी उसको जन्य ( ग्रर्थात् कार्य ) न माना जाय तो जन्यताका व्यवहार कहां माने ? समर्थ स्वभाव ही जन्य है शब्द नहीं ऐसा कहना भी अनुचित है, नित्य शब्द का समर्थ स्वभाव जन्य माने तो विरुद्ध धर्म युक्त होने से उसको शब्द से भिन्न मानना होगा और उस भिन्न पक्ष में वही उक्त दोष प्रायेगा, अर्थात् शब्दसे भिन्न रहने वाला समर्थ स्वभाव ध्वनियों से जन्य है तो ध्वनियों द्वारा शब्द का कुछ भी किया गया अतः वह अश्रवण रूप ही बना रहेगा ।
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तथा यदि इस शब्द का संस्कार केवल श्रोत्र प्रदेश में ही होता है तो उतना मात्र ही शब्द है सर्वगत नहीं ऐसा निश्चय होता है । यदि कहा जाय कि श्रोत्र प्रदेश उपलब्ध होने वाला शब्द ही उस प्रदेश से अन्य जगह विपर्ययरूप से अर्थात् अनुपलब्ध
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