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शब्दनित्यत्ववादः
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इत्यादेरत्राप्यभिधातु शक्यत्वात् । यथा च
क्वचिद्रक्तः क्वचित्पीतः क्वचित्कृष्णश्च गृह्यते ।
प्रतिदेशं घटस्तेन विभिन्नो मम युक्तिमान् ॥ तथा
उदात्तः कुत्रचिच्छब्दोऽनुदात्तश्च तथा क्वचित् ।
अकारो मि(कारभि)श्रितोऽन्यत्र विभिन्नः स्याद् घटादिवत् ॥ ननु 'व्यञ्जकध्वनिधर्मा एवोदात्तादयो नाऽकारादिधर्माः, ते तु तत्रारोपात्तद्धर्मा इवावभासन्ते जपाकुसुमरक्ततेव स्फटिकादाविति । उक्तञ्च
"बुद्धितीव्रत्वमन्दत्वे महत्त्वाल्पत्वकल्पना। सा च पट्वी भवत्येव महातेजःप्रकाशिते ॥१॥ . मन्दप्रकाशिते मन्दा घटादावपि सर्वदा । एवं दीर्घादयः सर्वे ध्वनिधर्मा इति स्थितम् ॥२॥"
[मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० २१६-२२० ]
मानने होंगे ? कोई कह सकता है कि-घट के अवयव नहीं होते हैं जिससे कि वह खण्ड खण्ड रूप से सर्वत्र रह जाय, अतः “घट है" इत्यादि वाक्य का अर्थ घट पूर्ण रूप से एक जगह विद्यमान है ऐसा ही होता हैं न कि सर्वत्र विद्यमान ऐसा । घट कहीं पर लाल, कहीं पीला, कहीं काला दिखाई देता है अतः वह प्रतिदेश में विभिन्न है ऐसा कहना यदि युक्ति संगत है तो शब्द कहीं तो उदात्त प्रकार रूप उपलब्ध होता है कहीं अनुदात्त अकाररूप और कहीं उभयरूप उपलब्ध होता है, अतः शब्द भी घट आदि के समान प्रतिदेश में विभिन्न है ऐसा भी स्वीकार करना चाहिये ।
मीमांसक -आपने जो उदात्त आदि भेद किये वे शब्द के न होकर व्यञ्जक ध्वनियों के हैं, व्यञ्जक ध्वनियों के धर्मों का शब्द में आरोप होता है अतः शब्द के हैं ऐसा मालूम पड़ता है, जैसे कि स्फटिक में स्वयं में लालिमा नहीं है किन्तु जपा कुसुम की लालिमा आरोपित होने से स्फटिक की है ऐसा मालूम पड़ता है। कहा भी हैमहान प्रकाश के होने पर तीव्र बुद्धि होती है और अल्प प्रकाश के होने पर मन्द बुद्धि होती है ऐसी बुद्धि में तीव्र मन्द की कल्पना करते हैं, तथा मंद प्रकाश में घट मंद दिखता है और तीव्र प्रकाश में तीव्र दिखायी देता है सो मन्द तीव्र धर्म प्रकाश के थे किन्तु उसका आरोप घट आदि में करते हैं वैसे ही दीर्घ, ह्रस्व, उदात्त, अनुदात्त, इत्यादि धर्म ध्वनियों के हैं किन्तु उनका शब्दों में आरोप किया जाता है ।
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