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शब्दनित्यत्ववादः
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चानुमेयानुमापकयोः सामान्य विशिष्टविशेषरूपतोपगन्तव्या, अन्यथा सामान्यमात्रस्य दाहाद्यर्थक्रियासाधकत्वाऽभावात् ज्ञानाद्यर्थ क्रियायाश्चतत्साध्यायास्तदैवोत्पत्तोः, दाहार्थिनामनुमेयार्थप्रतिभासात् प्रवृत्त्यभावतोऽस्याप्रामाण्य प्रसंगः । सामान्य विशिष्टविशेषरूपता चात्र वाच्यवाचकयोरपि समाना न्यायस्य समानत्वात् ।
यदप्युक्तम्
"सदृशत्वात्प्रतीतिश्चेत्तद्वारेगााप्यवाचकः । कस्य चैकस्य सादृश्यात्कल्प्यतां वाचकोऽपरः ॥१॥
ऐसा नहीं समझना, यदि ऐसा मानेंगे तो सामान्य के दहन पचन आदि अर्थ क्रिया का अभाव होने से उससे साधने योग्य जो ज्ञानादि अर्थ क्रिया थी वह उसी अनुमान के वक्त हो उत्पन्न हो जायगी, फिर दहन पचन आदि कार्य को चाहने वाले पुरुष के अनुमेय अर्थका (अग्निका) प्रतिभास होने से जो प्रवृत्ति होती है वह नहीं हो सकेगी अतः सामान्य तो अप्रमाणभूत बन जायगा ? जो यह धूम और अग्नि की बात है वही शब्द और अर्थ के वाच्य वाचकपने की है ? न्याय तो सर्वत्र समान होता है । इस कथन का निष्कर्ष यह निकला कि मीमांसक शब्द को सर्वत्र एक मानकर उसमें पदार्थ का वाचकपना होना बतलाते हैं सो इस तरह फिर धूम के विषय में भी कह देंगे कि धूम सर्वत्र एक है पर्वत आदि में वही एक रहता है और साध्य को सिद्ध कर देता है ? किंतु ऐसा नहीं है महानस का धूम ही पर्वत पर नहीं होता किन्तु उसके समान अन्य ही होता है इसी तरह इस घट वाच्य का यह 'घ' 'ट' शब्द वाचक होता है ऐसा संकेत ग्रहण किया उस काल में और पुनः घट शब्द सुनकर घट का ज्ञान हुआ तब इन दोनों समयों में एक ही घट शब्द नहीं होता किन्तु उसके समान दूसरा ही रहता है, ऐसा प्रतीति के अनुसार मानना चाहिए ।
मीमांसक के यहां पर कहा है कि-जो लोग संकेत काल का शब्द और व्यवहार का शब्द एक नहीं है किन्तु संकेतकाल के शब्द के समान दूसरा ही कोई नया शब्द व्यवहार काल में रहता है उस सदृश शब्द से ही अर्थ प्रतीति होती है, ऐसा मानते हैं वह ठीक नहीं क्योंकि व्यवहार कालीन नया शब्द पदार्थ का वाचक नहीं बन सकता क्योंकि यदि जिसमें संकेत नहीं हुआ है ऐसा शब्द भी अर्थ का वाचक होता है तो किसी एक की सदृशता से अन्य किसी का वाचकपना होना भी स्वीकार करना होगा ?
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