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शब्दनित्यत्ववादः
४६७ पर्यायेण यथा चैको भिन्नदेशान् व्रजन्नपि । देवदत्तो न भिद्येत तथा शब्दो न भिद्यते ॥७॥ ज्ञातैकत्वो यथा चासो दृश्यमानः पुनः पुनः । न भिन्नः कालभेदेन तथा शब्दो न देशतः ।।८।। पर्यायादविरोधश्चेद्वयापित्वादपि दृश्यताम् । दृष्टसिद्धो हि यो धर्मः सर्वथा सोऽभ्युपेयताम् ।।६॥"
[ मो० श्लो० शब्दनि० श्लो० १९७-२०० ] इति । अत्र प्रतिविधीयते । नित्यः शब्दोऽर्थप्रतिपादकत्वान्यथानुपपत्तेरित्ययुक्तम् ; धूमादिवदनित्यस्यापि शब्दस्यावगतसम्बन्धस्य सादृश्यतोऽर्थप्रतिपादकत्वसम्भवात् । न खलु य एव संकेतकाले दृष्टस्तेनैवार्थ
सिद्ध होता है ।।१।। जिस प्रकार देवदत्त नामा कोई पुरुष है वह क्रम क्रम से विभिन्न देशों में जाता है किन्तु देवदत्त तो वहीं रहता है, उसमें कोई भेद नहीं है उसी तरह शब्द नाना देशों में उपलब्ध होते हुए भी एक है अनेक नहीं ।।२।। जिस प्रकार जिसका एकत्व जान लिया है ऐसा देवदत्त विभिन्न काल में पुनः पुनः दिखाई देने पर भी भिन्न नहीं कहा जाता, उसी प्रकार शब्द के पुनः पुन: उपलब्ध होने पर भी देश भेद से भेद नहीं कहा जा सकता ।।३।। यदि कहा जाय कि देवदत्त एक है पर उसकी पर्याय अनेक होने से देशादि का भेद बन जाता है ? तो इसी प्रकार शब्द एक है पर वह व्यापक होने से विभिन्न देशादि में भेद रूप उपलब्ध होता है ऐसा मानना चाहिये ? क्योंकि जो धर्म प्रत्यक्ष सिद्ध होता है वह सर्वथा स्वीकार करने योग्य होता है ।।४। इस प्रकार शब्द में एकपना तथा नित्यपना सिद्ध होता है ।
जैन- अब यहां पर मीमांसक के मंतव्य का खण्डन किया जाता है - शब्द नित्य है, क्योंकि अर्थ प्रतिपादकत्व की अन्यथानुपपत्ति है। यह मोमांसक का अनुमान प्रयुक्त है, वाच्य वाचक संबंध सादृश्यता से जाना जाता है अतः अनित्य शब्द भी अर्थ का प्रतिपादक होना संभव है, जैसे धूम आदि पदार्थ अनित्य होकर भी अग्नि को सिद्ध करते हैं । ऐसा नियम नहीं है कि जिस शब्द में वाच्य वाचक संबंध को जाना था वही अर्थ की प्रतीति करा सकता है, देखा जाता है कि धूम को महानस में देखा था वह तो अब पर्वतादि में नहीं है उसके सदृश धूम है फिर भी उस धूम से अग्निका अनुमान होता है । ऐसा तो है नहीं कि जो धूम महानस में उपलब्ध हुआ था वही धूम पर्वतादि
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