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शब्द नित्यत्ववादः स्वदेशमेव गृह्णाति सवितारमनेकधा। भिन्नमूत्ति यथापात्रं तदास्यानेकता कुतः ।।२।।"
[ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १८०-१८१] यथा च प्रदीपः।
"ईषत्सम्मिलितेऽगुल्या यथा चक्षुषि दृश्यते । पृथगेकोपि भिन्नत्वाच्चक्षुर्वृत्तेस्तथैव नः । १।। अन्ये तु चोदयन्त्यत्र प्रतिबिम्बोदयैषिणः। स एव चेत्प्रतीयेत कस्मान्नोपरि दृश्यते ।।२।। कूपादिषु कुतोऽधस्तात्प्रतिबिम्बाद्विनेक्षणम् । प्राङ्मुखो दर्पणं पश्यन् स्याच्च प्रत्यङ्मुखः कथम् ।।३।। तत्रैव बोधयेदर्थं बहिर्यातं यदीन्द्रियम् । तत एतद्भवेदेवं शरीरे तत्त बोधकम् ॥४॥"
[ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो० १८२-१८५ ]
पर सूर्य को जितने जल भरे पात्र हों उतने रूप भिन्न भिन्न आकार में ग्रहण करता है, अतः सूर्य के प्रतिबिम्ब में अनेकता कहां हुई ? अर्थात् नहीं हुई ।।१।।२।।
दीपक का दृष्टांत है कि जब किंचित मिली हुई अंगुली को नेत्रपर रखकर दीप को देखते हैं, तब एक ही दीपक नाना रूप दिखाई देता है, वह हमारे ही चक्षु की वृत्ति विभिन्न (अनेक) हो जाने से दिखता है ॥१॥
जल पात्र में सूर्य आदि के प्रतिबिम्बित हो जाने से सूर्यादिक नाना रूप दिखाई देते हैं ऐसा जो जैनादि मानते हैं, उनके प्रति हम मीमांसकों का प्रश्न है कि यदि सूर्य के कारण ही अनेक जल पात्रों में अनेक सूर्य दिखायी देते हैं तो ऊपर आकाश में भी अनेक रूप क्यों नहीं दिखता ? ।।२।। तथा कूप आदि में नीचे की ओर बिना प्रतिबिम्ब के कैसे दिखाई देता है ? कोई पुरुष पूर्व दिशा में मुख करके खड़ा होकर दर्पण में देख रहा है तब उसको अपना मुख पश्चिम में कैसे दिखायी देता है ? ॥३॥ यदि कहा जाय कि किरण चक्षु दर्पण की ओर जाने से उस तरफ अपना मुख दिखाई देता है तो वहीं पर पदार्थ का ज्ञान भी होना था ? किन्तु ऐसा नहीं होता। अब यहां
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