________________
४६६
प्रमेयकमलमार्तण्डे
अत्राह
"अप्सूर्यशिनां नित्यं द्वधा चक्षुः प्रवर्तते । एकमूर्ध्वमधस्ताच्च तत्रोशिप्रकाशितम् ॥११॥ अधिष्ठानानजुत्वाच्च नात्मा सूर्य प्रपद्यते । पारम्पर्यापितं स तमवाग्वृत्या तु बुध्यते ॥२॥ उर्ध्व वृत्ति तदेकत्वादवागिव च मन्यते । अधस्तादेव तेनार्कः सान्तरालः प्रतीयते ।।३।। एवं प्राग्गतया वृत्त्या प्रत्यग्वृत्तिसमर्पितम् । बुध्यमानो मुखं भ्रान्तेः प्रत्यगित्यवगच्छति ॥४॥ अनेकदेशवत्तौ च सत्यपि प्रतिबिम्बके । समानबुद्धिगम्यत्वान्नानात्वं नैव विद्यते ॥३॥"
[ मी० श्लो० शब्दनि० श्लो. १८६-१६० ]
किञ्च,
"देशभेदेन भिन्नत्वं मतं तच्चानुमानिकम् । प्रत्यक्षस्तु स एवेति प्रत्ययस्तेन बाधकः ।।६।।
पर इसी को खुलासा करते हैं--जल में सूर्य को देखने वाले मनुष्यों की चक्षु हमेशा दो प्रकार से प्रवृत्ति करती है, ऊपर और नीचे की ओर, इनमें से जो ऊपर का अंश प्रकाशित होता है उसका स्वरूप सीधा प्रकाशित नहीं हो पाता, क्योंकि रश्मि चक्षु का अधिष्ठान जो गोलक चक्षु है वह वक्र है, इसी कारण से चक्षु का तेज सूर्य को प्राप्त नहीं होता, हां परंपरा से जाकर नीचे की वृत्ति से उसको जान लेता है ॥२॥ रश्मि चक्षु चुकि ऊपर की तरफ भी जाती है, और सूर्य आकाश में एक है अतः वह नीचे की ओर सांतराल प्रतीत होता है ।।३। इसी प्रकार दर्पण की तरफ पूर्व की ओर से निकलकर जाती हुई चक्षु किरणें दर्पण में अपने को अर्पित करती हैं अतः दर्पण में मुख को देखने वाला व्यक्ति भ्रान्ति से पश्चिम में सुख को मान लेता है ।।४॥ इस प्रकार सूर्य अनेक देशों में उपलब्ध होता है, तथा जल पात्रों में अनेक प्रतिबिम्ब भी उपलब्ध होते हैं किन्तु समान बुद्धि होने से सूर्य में नानात्व नहीं रहता है ।।५।। दूसरी बात यह है कि देश भेद से, गकारादि शब्दों में भेद है ऐसा जिनका मत है वह प्रत्यक्ष से बाधित होता है क्योंकि यह वही शब्द है इस प्रकार के ज्ञान द्वारा शब्दों में अभेद
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org