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प्रमेय कमल मार्त्तण्डे
तथाभूताश्चास्याः सामान्यनिराकरणे निराकरिष्यमाणत्वात् । ततः प्रवृत्तिमिच्छता लिंगाच्छन्दाद्वा न सामान्यमात्रस्य प्रतिपत्तिरभ्युपगन्तव्या ।
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ननु सामान्यस्य विशेषमन्तरेणानुपपत्तितो लक्षितलक्षणया विशेषप्रतिपत्तेर्न प्रवृत्त्याद्यभावानुषंगः; इत्यप्रातोतिक्रम्; क्रमप्रतीतेरभावात् । न हि वाचकोद्भूतवाच्यप्रतिभासे प्राक् सामान्यावभासः पश्चाद्विशेषप्रतिभास इत्यनुभवोस्ति ।
आधार पर सिद्ध करना चाहते हैं किन्तु वह सादृश्य तो सामान्य रूप सिद्ध होता है, क्योंकि सादृश्य को अनेक तथा अनित्य मानेंगे तो उससे शब्द का वाच्यार्थ के साथ संबंध सिद्ध नहीं हो पाता है और अनेक एवं नित्य स्वभाव रूप सादृश्य मानते हैं तो एक ही सादृश्य द्वारा अर्थ प्रतीति हो जाने से अनेक निष्ठ सादृश्य मानने की जरूरत नहीं रहती है, इत्यादि ? सो यह वर्णन प्रयुक्त है । जो बात शब्द के सादृश्य के विषय में कही वही बात धूम आदि हेतु के विषय में कही जायगी, धूमादि एक हेतु का जैसा परिणाम है वैसा दूसरे धूमादि का भी परिणाम होना सादृश्य कहलाता है न कि उसी एक के परिणाम को सादृश्य कहते हैं । यह जो सादृश्य परिणाम है वह व्यक्तियों से ( धूम विशेषों से ) कथंचित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न है, क्योंकि उसी तरह की प्रतीति प्राती है यह सब सादृश्य की बात है, ऐसी बात सामान्य में घटित नहीं होती, उस सामान्य को तो आप नित्य व्यापक मानते हैं ? और ऐसे नित्य सामान्य का हम जैन आगे निराकरण करने वाले हैं । इसलिये प्रवृत्ति को चाहने वाले पुरुष को हेतु से या शब्द से मात्र सामान्य प्रतिभास होता है ऐसा नहीं मानना चाहिये ।
शंका- सामान्य तो विशेष के बिना होता ही नहीं अतः लक्षित लक्षण न्याय से अर्थात् सामान्य के प्रतिभासित हो जाने से विशेष का प्रतिभास भी हो जाता है ऐसा हम मानते हैं इसलिये प्रवृत्ति होना इत्यादि का प्रभाव होवेगा ऐसा जो दूषण दिया था वह नहीं आता है ?
समाधान
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- यह कथन प्रतीति विरुद्ध है, ऐसी क्रमिक प्रतीति नहीं होती कि वाचक शब्द से उत्पन्न हुआ वाच्य का जो प्रतिभास है उसमें पहले सामान्य प्रतीत होता हो और पीछे विशेष प्रतीत होता हो ।
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