Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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स्मृतिप्रामाण्यविचारः
ननु कोयं स्मृतिशब्दवाच्योर्थ : - ज्ञानमात्रम्, अनुभूतार्थविषयं वा विज्ञानम् ? प्रथमपक्षे प्रत्यक्षादेरपि स्मृतिशब्दवाच्यत्वानुषङ्गः । तथा च कस्य दृष्टान्तता ? न खलु तदेव तस्यैव दृष्टान्तो भवति । द्वितीयपक्षेपि देवदत्तानुभूतार्थे यज्ञदत्तादिज्ञानस्य स्मृतिरूपताप्रसङ्गः । अथ 'येनैव यदेव पूर्वमनुभूतं वस्तु पुनः कालान्तरे तस्यैव तत्रैवोपजायमानं ज्ञानं स्मृतिः' इत्युच्यते ननु 'अनुभूते जायमानम्' इत्येतत् केन प्रतीयताम् ? न तावदनुभवेन; तत्काले स्मृतेरेवासत्त्वात् । न चासती विषयीकर्तुं शक्या । न चाविषयीकृता 'तत्रोपजायते' इत्यधिगतिः । न चानुभव कालेऽर्थस्यानुभूततास्ति, तदा तस्यानुभूयमानत्वात्, तथा च 'अनुभूयमाने स्मृतिः' इति स्यात् । अथ 'ग्रनुभूते स्मृतिः' इत्येतत्स्मृतिरेव प्रतिपद्यते; न; अनयाऽतीतानुभवार्थयोरविषयीकरणे तथा प्रतीत्ययोगात् । तद्विषयीकरणे वा निखिलातीतविषयीकरण प्रसङ्गोऽविशेषात् । यदि चानुभूतता प्रत्यक्षगम्या स्यात् तदा स्मृतिरपि जानीयात्
सौगत - स्मृति शब्द का वाक्य अर्थ क्या है ? ज्ञान मात्र को स्मृति कहते हैं तो प्रत्यक्षादि प्रमाण भी स्मृति शब्द के वाच्य होवेंगे फिर उपर्युक्त अनुमान में दृष्टांत किसका होगा ? वही उसका दृष्टान्त तो नहीं हो सकता । - दूसरा पक्ष - अनुभूत विषय वाले ज्ञान को स्मृति कहते हैं ऐसा कहे तो देवदत्त के द्वारा अनुभूत विषय में यज्ञदत्त आदि के ज्ञान को स्मृतिपना होने का प्रसंग प्रायेगा । यदि कहें कि जिसके द्वारा जो विषय पूर्व में अनुभूत हैं पुनः कालान्तर में उसी का उसी में ज्ञान उत्पन्न होना स्मृति है सो यह कथन असत् है "अनुभूत में उत्पन्न हुया है" इस तरह से किसके द्वारा प्रतीत होगा ? अनुभव द्वारा तो नहीं हो सकता, क्योंकि उस वक्त स्मृति का ही असत्व है, जो नहीं है उसको विषय नहीं कर सकते और अविषय के बारे में उसमें " उत्पन्न होती है" ऐसा निश्चय नहीं कर सकते । तथा वस्तु के अनुभवन काल में वस्तु की अनुभूतता नहीं होती किंतु उस समय उसकी अनुभूयमानता होती है । जब ऐसी बात है तो अनुभूयमान में स्मृति होती है ऐसा मानना होगा ।
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"अनुभूत विषय में स्मृति होती है" इस बात का निश्चय तो स्वयं स्मृति ही कर लेती है ऐसा कहो तो गलत है क्योंकि स्मृति के द्वारा अतीतार्थ और अनुभवार्थ का ग्रहण नहीं होता, क्योंकि वैसा प्रतीत नहीं होता है । तथा यदि स्मृति प्रतीतार्थ और अनुभवार्थ को ग्रहण करती है तो सम्पूर्ण प्रतीत विषयों को ग्रहण करने का प्रसंग आता है क्योंकि उक्त विषय में प्रतीतपने की विशेषता है । तथा यदि अनुभूतपना प्रत्यक्षगम्य होता तो स्मृति भी जान सकती है कि "मैं अनुभूत विषय में उत्पन्न हुई हैं,
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