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प्रमेयकमल मार्त्तण्डे
तत्प्रवृत्तौ बालावस्थायां प्रतिपन्नाग्निधूमसम्बन्धस्य पुनर्वृद्धदशायां धूमदर्शनादग्निप्रतिपत्तिप्रसङ्गः, न चैवम् । तत्स्मृतावस्त्येवेति चेत्; कथं नासो प्रमारणम् ? को हि स्मृतिपूर्वकमनुमानमभ्युपगम्य पुनस्तां निराकुर्यात् ? अनुमानस्यापि निराकरणानुषङ्गात् । न खलु कारणाभावे कार्योत्पत्तिर्नामाऽतिप्रसङ्गात् । समारोपव्यवच्छेदकत्वाच्चास्याः प्रामाण्यमनुमानवत् । न च स्मृतिविषयभूते सम्बन्धादी समारोपस्यैवासम्भवात् कस्य व्यवच्छेद इत्यभिधातव्यम्; साधर्म्य दृष्टान्ताभिधानानर्थक्यप्रसङ्गात् । तत्र स्मृतिहेतुभूतं हि तत्, अन्यथा हेतुरेव केवलोभिधीयेत । ततस्तदभिधानान्यथानुपपत्तेस्तद्विषयभूते सम्बन्धादौ विस्मरणसंशयविपर्यासलक्षणः समारोपोस्तीत्यवगम्यते ।
प्रामाण्यमिति ।
अन्यथा अतिप्रसंग होगा साध्य साधन के संबंध को देखने मात्र से अनुमान की प्रवृत्ति होती है । ऐसा दूसरा पक्ष कहो तो बाल अवस्था में जिसने धूम और अग्नि का संबंध जाना है ऐसे पुरुष के वृद्ध अवस्था आने पर धूम देखने से अग्नि का ज्ञान हो जाने का प्रसंग आता है, किन्तु इस प्रकार नहीं होता है । तुम कहो कि उस पुरुष को यदि बाल्यावस्था का धूम - अग्नि का संबंध स्मृति में रहता है तो अग्नि का ज्ञान हो जाता है सो स्मृति प्रमाणभूत कैसे नहीं कहलायेगी ? ऐसा कौन बुद्धिमान व्यक्ति है कि जो स्मृतिपूर्वक होने वाले अनुमान को स्वीकार करे और स्मृति का निराकरण करे। यदि करेगा तो अनुमान का भी निराकरण होवेगा । क्योंकि कारण के प्रभाव में कार्य की उत्पत्ति मानने में प्रतिप्रसंग दोष प्राता है । तथा यह स्मृति ज्ञान समारोप ( संशय, विपर्यय, अध्यवसाय का ) व्यवच्छेदक होने से अनुमान के समान ही प्रामाणिक है । शंका - स्मृति के विषयभूत संबंधादि में समारोप होना ही असंभव है अतः यह ज्ञान किसका व्यवच्छेद करेगा ?
तन्निराकरणाच्चास्याः
समाधान - ऐसा नहीं कह सकते, यदि स्मृति के विषय में समारोप नहीं होता तो साधर्म्य दृष्टांत का कथन व्यर्थ होता, क्योंकि अनुमान में साधर्म्य दृष्टांत स्मरण के लिये ही दिया जाता है, अन्यथा केवल हेतु का ही कथन करते । साधर्म्य दृष्टान्त का कथन करने से ही निश्चय होता है कि स्मृति के विषयभूत संबंध में विस्मरण संशय और विपर्यास लक्षण वाला समारोप होता है । और उस समारोप का निराकरण करने वाली होने से स्मृति प्रमाण भूत है ऐसा सिद्ध होता है ।
|| स्मृति प्रामाण्य विचार समाप्त ॥
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