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प्रमेयकमलमार्तण्डे ताल्वादिसहायस्यैवात्मनो व्यापाराभ्युपगमात् । घटाद्युत्पत्तौ चक्रादिसहायस्य कुम्भकारादेयापारवत्, कथमन्यथा घटादेरप्यात्मकार्यता ? कार्यकार्यादेश्च कार्यहेतावेवान्तर्भावः । कारणलिंगं यथा
अस्त्पत्र छाया छत्रात् ।।६७।। कारणकारणादेर त्रैवानुप्रवेशान्नार्थान्तरत्वम् । पूर्वचरलिंगं यथा
उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयात् ।।६८।। पूर्वपूर्वचराद्यनेनैव संगृहीतम् । उत्तरचरं लिंगं यथा
उदगाद्भरणिस्तत एव ।।६९।।
समाधान-यह कथन असार है, जैनने शब्दकी उत्पत्तिमें तालुपादिकी सहायतासे युक्त आत्माको कारण माना है, जैसे घट आदिकी उत्पत्तिमें चक्रादिकी सहायतासे युक्त हुआ कुभकार प्रवृत्ति करता है । शब्दकी उत्पत्तिमें आत्माको कारण न मानो तो घटादिकी उत्पत्तिमें आत्माको कारण भी किसप्रकार मान सकते हैं ? अस्तु । इस कार्य हेतुमें ही कार्यकार्यहेतुका अंतर्भाव होता है । कारण हेतुका उदाहरण
अस्त्यत्र छाया छत्रात् ।।६७।। सूत्रार्थ – यहांपर छाया है क्योंकि छत्र है । कारण कारण हेतुका इसी हेतुमें अंतर्भाव होनेसे उसमें पृथक हेतुत्व नहीं है । पूर्वचर हेतुका उदाहरण
उदेष्यति शकटं कृतिकोदयात् ।।६८।। सूत्रार्थ-एक मुहूर्त बाद रोहिणी नक्षत्रका उदय होगा, क्योंकि कृतिका नक्षत्रका उदय हो रहा है। पूर्व पूर्वचर हेतु इसीमें अंतर्हित है। उत्तरचर हेतुका उदाहरण
उदगाद् भरणि स्तत एव ।।६।।
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