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प्रमेयकमल मार्त्तण्डे
परम्परया संभवत्साधनमत्रैवान्तर्भावनीयम् ||६||
यतः परम्परया सम्भवत्कार्यकार्यादि साधनमत्रैव अन्तर्भावनीयं ततो नोक्तसाधनसङ्ख्या
व्याघातः ।
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तत्र विधौ कार्यकार्यं कार्याविरुद्धोपलब्धी अन्तर्भावनीयम् यथा
अभूत्र चक्र े शिवकः स्थासात् । कार्यकार्य मविरुद्ध कार्योपलब्धौ ।।९१-९२ ॥
शिवकस्य हि साक्षाच्छत्रकः कार्यं स्थासस्तु परम्परयेति ।
निषेधे तु कारणविरुद्धकार्यं विरुद्धकार्योपलब्धौ यथाऽन्तर्भाव्यते तद्यथा
हेतु उक्त हेतु के प्रकारोंसे अन्यरूप है, अतः ऐसे हेतुसे उक्त हेतु संख्याका व्याघातकारी छल साधनांतर का प्रसंग आता है ?
समाधान -- इस शंकाका समाधान आगेके सूत्र द्वारा करते हैं-
परंपरया संभवत् साधनमत्रैवान्तर्भावनीयम् ॥ ६०॥
सूत्रार्थ -- परंपरारूप होनेवाला साधन ( हेतु ) इन्हीं पूर्वोक्त हेतुप्रकारोंमें अंतर्भूत करना चाहिए । अतः उक्त हेतुस्रोंकी संख्याका व्याघात नहीं होता । विधिरूप साध्य में कार्यकार्यरूप हेतुका कार्याविरुद्धोपलब्धि नामा हेतुमें अंतर्भाव होता है जैसे --
अभूदत्र चक्रे शिवकः स्थासात् ||१|| कार्यकार्यमविरुद्धकार्योपलब्धौ ॥२॥
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सूत्रार्थ -- इस कुंभकारके चक्र पर शिवक नामा घट का पूर्ववर्ती कार्य हुआ है क्योंकि स्थासनामा कार्य उपलब्ध है । शिवक नामा मिट्टी के आकार का साक्षात् कार्य छत्रकाकार है और स्थास नामा कार्य परंपरारूप है ।
भावार्थ -- कुंभकार जब गीली चिकनी मिट्टीको घट बनाने में उपयुक्त ऐसे स्थास प्रादि नामवाले प्रकार
चक्रपर चढ़ाता है तब उसके क्रमशः शिवक, छत्रक बनते जाते हैं, पहले शिवक पीछे छत्रक और उसके पीछे स्थास आकार है अतः शिवकका साक्षात् कार्य तो छत्रक है और परंपरा कार्य स्थास है इसलिये यहां स्थासको कार्य कार्यहेतु कहा हैं । निषेधरूप साध्यके होनेपर कारण विरुद्ध कार्य हेतुका विरुद्ध कार्योपलब्धि अंतर्भाव होता है । जैसे --
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