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वेदापौरुषेयत्ववादः
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किञ्च, विपक्षविरुद्ध विशेषरगं विपक्षाद्वयावर्त्तमानं स्वविशेष्यमादाय निवर्त्तेत । न च पौरुषेयत्वेन सह कर्त्तुः स्मरणयोग्यत्वस्य सहानवस्थानलक्षणः परस्परपरिहारस्थितिलक्षणो वा विरोध: सिद्धः। सिद्धौ वा तत एव साध्यप्रसिद्ध े : 'अस्मर्यमाणकर्तृ कत्वात्' इति विशेष्योपादानं व्यर्थम् ।
यच्चोक्तम्-तदनुष्ठानसमय इत्यादि; तदागमान्तरेपि समानम् न वा इति चिन्त्यताम् - न चायं नियमः-‘अनुष्ठातारोऽभिप्रेतार्थानुष्ठानसमये तत्कर्त्तारमनुस्मृत्यैव प्रवर्त्तन्ते' । न खलु पारिणन्यादिप्रणीतव्याकरणप्रतिपादितशाब्दव्यवहारानुष्ठानसमये तदर्थानुष्ठातारोऽवश्यन्तया व्याकरणप्रणेतारं पाणिन्यादिकमनुस्मृत्यैव प्रवर्त्तन्त इति प्रतीतम् । निश्चिततत्समयानां कर्तृ स्मरणव्यतिरेकेणाप्याशुतरं भवत्यादिसाधुशब्दोपलम्भात् । तत्र भवत्सम्बन्धि प्रत्यक्षेणानुभवाभावात् । तत्र तच्छिन्नमूलम् ।
दूसरी बात यह है कि हेतुका जो विशेषण होता है वह विपक्षसे विरुद्ध होता है अतः जब वह विपक्ष से व्यावृत्त होता है तब स्व विशेष्यको लेकर व्यावृत्त होता है, ऐसा ही नियम है । किन्तु यहां प्रकरण में पौरुषेय रूप विपक्ष के साथ कर्त्ताके स्मरणकी योग्यताका सहानवस्था विरोध या परस्पर परिहार विरोध तो सिद्ध नहीं है, अर्थात् जहां पर पौरुषेय हो वहांपर कर्त्ता स्मरणको योग्यता नहीं रहे ऐसा इन दोनोंमें अंधकार और प्रकाश के समान कोई विरोध तो है नहीं जिससे कर्त्ताके स्मरणके प्रभाव में पौरुषेय भी नहीं रहता ऐसा नियम बन सके ? पौरुषेयत्वमें और कर्त्तास्मरण की योग्यता में जबरदस्ती विरोधको सिद्ध भी कर लेवे तो फिर उतने मात्र से ही साध्य ( अपौरुषेयत्व ) की सिद्धि हो जायगी, फिर तो ग्रस्मर्यमाण कर्तृत्व हेतु रूप विशेष्यको ग्रहण करना व्यर्थ ही ठहरेगा ।
मीमांसक ने कहा कि वेद विहित अनुष्ठानको करते समय कर्ताका स्मरण अवश्य होता है इत्यादि, सो यह बात अन्य श्रागम में भी समान है ? आप विचार करें कि इस तरह है कि नहीं । यह नियम नहीं बन सकता कि अनुष्ठान को करने वाले व्यक्ति शास्त्र विहित क्रियाको करते समय उस शास्त्रके कर्त्ताको जरूर स्मरण करते हों पाणिनि आदि ग्रंथकार द्वारा प्रणीत व्याकरण में प्रतिपादित किये गये धातु लिंग आदि संबंधी शब्द होते हैं उनको व्यवहारमें प्रयोग करते समय पाणिनि आदि ग्रन्थकारका स्मरण करके ही प्रयोग करते हैं ऐसा प्रतीत नहीं होता । व्याकरण कथित शब्दोंका नियम जिनको याद है वे पुरुष व्याकरण कर्ताका स्मरण किये बिना भी शीघ्रतासे " भवति" इत्यादि धातुपद प्रादि साधु शब्दों को उपलब्ध करते हैं । इसप्रकार आप मीमांसक के प्रत्यक्ष द्वारा वेदकर्त्ताका अनुभव नहीं होनेसे वेदकर्ताका स्मरण छिन्नमूल
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