________________
४३८
प्रमेयकमलमार्तण्डे
किञ्च, सदुपलम्भकप्रमाणपञ्चक निवृत्तिनिबन्धनास्य प्रवृत्तिः "प्रमाणपञ्चकं यत्र" [ मी० श्लो० अभाव० श्लो० १] इत्याद्यभिधानात् । न च प्रमाणपंचकस्य वेदे पुरुषसद्भावावेदकस्य निवृत्तिः, पदवाक्यत्वलक्षणस्य पौरुषेयत्वप्रसाधकत्वेनानुमानस्य प्रतिपादनात् । न चास्याऽप्रामाण्यमभिधातु शक्यम्; यतोऽस्याप्रामाण्यम्-किमनेन बाधितत्वात्, साध्याविनाभावित्वाभावाद्वा स्यात् ? तत्राद्यपक्षे चक्रकप्रसंगः; तथाहि-न यावदभावप्रमाणप्रवृत्तिर्न तावत्प्रस्तुतानुमानबाधा, यावच्च न तस्य बाधा न तावत्सदुषलम्भकप्रमाण निवृत्तिः, यावच्च न तस्य निवृत्तिन तावत्तनिबन्धनाऽभावाख्य प्रमाणप्रवृत्तिः, तदप्रवृत्तौ च नानुमानबाधेति । द्वितीयपक्षस्त्वयुक्तः; स्वसाध्याविनाभावित्वस्यात्र
नहीं है, इसके प्रमाणताका खंडन "अभावस्य प्रत्यक्षादावन्तर्भावः" नामा प्रकरणमें प्रथम भागमें हो चुका है।
यहां पुन: प्रभाव प्रमाणकी किंचित् चर्चा करते हैं, सत्ता ग्राहक पांचों प्रमाणों की ( प्रत्यक्ष अनुमान उपमा अर्थापत्ति और आगमकी ) जहां निवृत्ति होती है वहां अभावप्रमाण प्रवृत्त होता है ऐसा आपके मीमांसा श्लोकवात्तिक ग्रंथमें लिखा है वेदमें ऐसे अभाव प्रमाणकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती, अर्थात् वेदमें पुरुषके सद्भावको बतलाने वाले पांचों प्रमाण प्रवृत्त नहीं होते किन्तु निवृत्त होते हैं ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि हम जैनका पदवाक्यत्व हेतुवाला अनुमान प्रमाण वेदको पौरुषेय सिद्ध करता है । इस अनुमानको अप्रमाण भी नहीं कहना। यदि आप इसे अप्रमाण मानते हैं तो किस कारणसे मानते हैं ? अन्य अनुमान द्वारा बाधित होनेके कारण अथवा साध्याविनाभावी हेतुके नहीं होनेके कारण ? प्रथम पक्ष कहो तो चक्रक दोष आता है - जब तक अभाव प्रमाण प्रवृत्त नहीं होता तबतक हमारे प्रस्तुत अनुमानमें बाधा नहीं आती और जब तक प्रस्तुत अनुमान बाधित नहीं होता तब तक सत्ताग्राहक प्रमाणोंकी निवृत्ति हो नहीं सकती और पांचों प्रमाण जबतक निवृत्त नहीं होते तबतक उनके निवृत्तिसे होनेवाला अभाव प्रमाण भी प्रवृत्त नहीं हो सकता। इस तरह प्रभाव प्रमाण जब प्रवृत्त नहीं होता तब हमारे अनुमानमें बाधा भी कौन देगा ? दूसरा पक्ष-जैनके अनुमानमें साध्याविनाभावी हेतु नहीं है अतः वह अप्रमाण है ऐसा कहना भी अयुक्त है, हमारा पद वाक्यत्व हेतु अपने पौरुषेयत्वसाध्यका अवश्य ही अविनाभावी है, क्योंकि जो पदवाक्य रूप रचित होता है वह पौरुषेयके बिना कहीं पर भी दिखायी नहीं देता है अतः इस हेतुमें साध्यके अविनाभावका अभाव नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org