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वेदापौरुषेयत्ववादः
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ऽतिप्रसंगात् । ज्ञातस्य चेत्; कुतस्तज्ज्ञप्तिः-स्वतः, अन्यतो वा ? स्वतश्चेत्; अन्योन्याश्रयः-सति हि वेदार्थाभ्यासे स्वतस्तत्परिज्ञानम्, तस्मिश्च तदर्थाभ्यास इति । अन्यतश्चेत्; तस्यापि तत्परिज्ञानमन्यत इत्यतोन्द्रियार्थदर्शिनोऽनभ्युपगमेऽन्धपरम्परातो यथार्थनिर्णयानुपपत्तिः ।
अदृष्टोपि प्रज्ञातिशयाऽसाधकः; तस्यात्मान्तरेपि सम्भवात् । न तथाविधोऽदृष्टोऽन्यत्र मन्वादावेवास्य सम्भवादिति चेत्; कुतोऽत्रैवास्य सम्भवः? वेदार्थानुष्ठानविशेषाच्चेत्; स तर्हि वेदार्थस्य ज्ञातस्य, अज्ञातस्य वाऽनुष्ठाता स्यात् ? अज्ञातस्य चेत् ; अतिप्रसंगः । ज्ञातस्य चेत्, परस्पराश्रयः-सिद्ध हि वेदार्थज्ञानातिशये तदर्थानुष्ठानविशेषसिद्धिः, तत्सिद्धौ च तज्ज्ञानातिशयसिद्धिरिति ।
होगा ? बिना समझे अभ्यास द्वारा सातिशय होता है ऐसा कहो तो अतिप्रसंग होगाफिर तो आबाल गोपालको वेदार्थका अभ्यास होने लगेगा। वेदके अर्थको समझकर अभ्यास किया जाता है ऐसा माने तो किसके द्वारा अर्थको समझा अपने द्वारा या अन्य किसीसे ? पहली बात माने तो अन्योन्याश्रय दोष खड़ा होगा-वेदार्थका अभ्यास होने पर स्वतः उसके अर्थका ज्ञान होवेगा और उसके होनेपर वेदार्थका अभ्यास होवेगा। अन्य किसी पुरुषद्वारा वेदार्थको समझकर अभ्यास किया जाता है ऐसा कहे तो अन्य पुरुषने भी किसी अन्य पुरुषसे वेदार्थको समझा होगा, इसतरह अतीन्द्रिय ज्ञानीको नहीं मानने वाले आप मीमांसकके यहां अंध पुरुषोंकी परम्पराके समान दूसरे दूसरे पुरुषोंकी अनवस्थाकारी परंपरा तो बढ़ती जायगी किंतु वेदके अर्थका यथार्थ निर्णय तो हो नहीं सकेगा।
मनु आदिको अदृष्टसे (भाग्यसे) ज्ञानका अतिशय होता है ऐसा कहना भी गलत है, अदृष्ट तो अन्य सामान्य जनों को भी होता है।
मीमांसक-प्रज्ञाका अतिशय करने वाला अदृष्ट तो मनु आदिमें ही हो सकता है सर्वसाधारण जनोंमें नहीं ?
जैन-तो फिर ऐसा अदृष्ट मनुके किस कारणसे हुआ ? वेदार्थका अनुष्ठान करनेसे हुया कहो तो वह भी वेदार्थको जाननेके बाद किया या बिना जाने किया ? बिना जाने किया कहो तो वहीं अतिप्रसंग होगा और जानने के बाद किया तो उस वेदार्थको कैसे जाना, उसमें वही अन्योन्याश्रयकी बात आती है-वेदार्थके ज्ञानका अतिशय सिद्ध होने पर उसके अर्थका अनुष्ठान विशेष सिद्ध होवेगा और उसके सिद्ध
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