Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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शब्दनित्यत्ववादः
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ननु शब्दस्याऽनित्यत्वोपगमे ततोर्थप्रतीतिर्न स्यात्, अस्ति चासौ। ततो 'नित्यः शब्दः स्वार्थप्रतिपादकत्वान्यथानुपपत्तेः' इत्यभ्युपगन्तव्यम् । स्वार्थेनावगतसम्बन्धो हि शब्द: स्वार्थ प्रतिपादयति, अन्यथाऽगृहीतसंकेतस्यापि प्रतिपत्तुस्ततोऽर्थप्रतीतिप्रसंगः ।
सम्बन्धावगमश्च प्रमाणत्रयसम्पाद्यः; तथाहि-यदैको वृद्धोऽन्यस्मै प्रतिपन्नसंकेताय प्रतिपादयति-'देवदत्त गामभ्याज शुक्लां दण्डेन' इति, तदा पार्श्वस्थान्योऽव्युत्पन्नसंकेतः शब्दार्थों प्रत्यक्षतः
.
मीमांसक के वेद अपौरुषेयवाद का खण्डन होने पर पुनः वे लोग शब्द के नित्यता के विषय में अपना विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करते हैं ।
मीमांसक-जैन शब्दको अनित्य मानते हैं किन्तु ऐसा मानने से शब्दों को सुनकर जो अर्थ प्रतीति होती है वह नहीं हो सकेगी, किन्तु “घट” ऐसा शब्द सुनते ही घट नाम की वस्तु का बोध अवश्य होता है अतः “शब्द नित्य है क्योंकि अपने वाच्य अर्थ की प्रतिपादनकी अन्यथानुपपत्ति है। ऐसी अनुमान सिद्ध बात स्वीकार करनी चाहिये । अपने वाच्य अर्थके द्वारा जिसने संबंध को ग्रहण किया है वही शब्द उस अर्थ का प्रतिपादन करता है, यदि संबंध ग्रहण की जरूरत नहीं होती तो जिसने वाच्य वाचक संबंधी संकेत को ग्रहण नहीं किया है वह पुरुष भी शब्द से अर्थ की प्रतीति कर
लेता।
शब्द और अर्थ का संबंध प्रत्यक्ष, अनुमान और अर्थापत्ति इन तीन प्रमाणोंसे जाना जाता है आगे इसी का खुलासा करते हैं-जब एक वृद्ध पुरुष जिसने पहले संकेत जान लिया है ऐसे अन्य पुरुष के लिये कहता है कि हे देवदत्त ! सफेद गाय को
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