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प्रमेयकमलमार्तण्डे
अथ विभिन्न देशादितयोपलभ्यमानत्वाद् गकारादीनां नानात्वाऽनित्यत्वे साध्येते; तन्न; अनेकप्रतिपत्त भिविभिन्नदेशादितयोपलभ्यमानेनादित्येनानेकान्तात् । विभिन्नदेशादितयोपलम्भश्चैषां व्यञ्जकध्वन्यधीनो, न स्वरूपभेदनिबन्धनः । तदुक्तम्
"नित्यत्वं व्यापकत्वं च सर्ववर्णेषु संस्थितम् । प्रत्यभिज्ञानतो मानाद्बाधसंगमवजितात् ।।१॥” [ ] "यो यो गृहीतः सर्वस्मिन्देशे शब्दो हि विद्यते । न चास्याऽवयवाः सन्ति येन वतत भागशः।।२॥ शब्दो वर्तत इत्येव तत्र सर्वात्मकश्च सः। व्यञ्जकध्वन्यऽधीनत्वात्तद्देशे स च गृह्यते ।।३।। न च ध्वनीनां सामर्थ्य व्याप्तु व्योम निरन्तरम् । तेनाऽविच्छिन्नरूपेण नासौ सर्वत्र गृह्यते ॥४॥
शंका-विभिन्न देशादिपने से उपलब्ध होने के कारण गकार आदि शब्दों को नाना एवं अनित्य रूप सिद्ध करते हैं ?
समाधान- यह बात ठीक नहीं । इस कथन में अनेक प्रतिपत्ता द्वारा विभिन्न देशादिपने से उपलब्ध होने वाले सूर्य के साथ अनैकान्तिकता आती है, अर्थात् विभिन्न देशों में गकारादि वर्ण उपलब्ध होने के कारण अनेक है ऐसा माने तो विभिन्न देशों में सूर्य उपलब्ध होने के कारण उसे भी अनेक मानना होगा। बात तो यह है कि शब्दों की विभिन्न देशों में उपलब्धि होनेका कारण उनकी व्यंजक ध्वनि है न कि स्वरूप भेद है। अर्थात् व्यंजक ध्वनियां नाना होनेसे विभिन्न देशादि रूप से शब्द की उपलब्धि होती है, स्वरूप में भेद होने के कारण नहीं । कहा है कि-ककार से लेकर जितने वर्ण हैं वे सब नित्य हैं, तथा व्यापक हैं, इनका नित्यपना निर्बाध प्रत्यभिज्ञान प्रमाण द्वारा जाना जाता है ।।१।। जो जो शब्द ग्रहण में आया है वह सब देश में रहता है अर्थात् व्यापक है, क्योंकि इसके अवयव नहीं होते हैं जिससे वह खण्ड खण्ड रूप से रहें ।।२।। जहां भी शब्द है वहां सर्वात्मपने से है, किन्तु जहां पर उसकी व्यञ्जक ध्वनि रहती है वहीं पर ग्रहण में आता है ।।३॥ शब्दों को प्रकट करने वाली व्यञ्जक ध्वनियां संपूर्ण आकाश को निरन्तर रूप से व्याप्त नहीं कर सकती अतः सर्वत्र अविच्छिन्न रूप से शब्द ग्रहण में नहीं पाता ।।४।। व्यञ्जक ध्वनियां भिन्न भिन्न देशों में विभिन्न हैं
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