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प्रमेयकमल मार्तण्डे
प्रतिपद्यते, श्रोतुश्च तद्विषयक्षेपणादिचेष्टोपलम्भानुमानतो गवादिविषयां प्रतिपत्ति प्रतिपद्यते, तत्प्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्या च तच्छब्दस्यैव तत्र वाचिकां शक्ति परिकल्पयति पुनः पुनस्तच्छब्दोच्चारणादेव तदर्थस्य प्रतिपत्तेः। सोयं प्रमाण त्रयसम्पाद्यः सम्बन्धावगमो न सकृद्वाक्यप्रयोगात्सम्भवति । न चाऽस्थिरस्य पुनः पुनरुच्चारणं घटते, तदभावे नान्वयव्यतिरेकाभ्यां वाचकशक्तयवगमः, तदसत्त्वान्न प्रेक्षावद्भिः परावबोधाय वाक्यमुच्चार्येत । न चैवम् । ततः परार्थवाक्योच्चारणान्यथानुपपत्त्या निश्चीयते नित्योसौ।
तदुक्तम्-“दर्शनस्य परार्थत्वान्नित्यः शब्दः'' [जैमिनिसू० १।१।१८]
दण्डा से निकाल दो। उस समय वहां पर तीसरा कोई अन्य पुरुष बैठा था जिसको कि गाय, दण्डा आदि शब्द और उनके वाच्यार्थ का संकेत मालूम नहीं था वह शब्द और अर्थ को प्रत्यक्ष प्रमाण से जानता है अर्थात् गो आदि शब्दको कर्णजन्य प्रत्यक्षसे और गो पदार्थको नेत्रज प्रत्यक्ष से जानता है। और जिस देवदत्त के प्रति वृद्ध पुरुष ने वाक्य कहा था उसके गो आदि विषय के ज्ञान को गाय को ताडना आदि चेष्टा की उपलब्धि रूप अनुमान प्रमाणसे जाना जाता है, तथा उस ज्ञानकी अन्यथानुपपत्तिरूप अर्थापत्ति प्रमाण द्वारा उसी शब्द की वाचक शक्ति को जाना जाता है कि पुनः पुनः गो शब्द के उच्चारण से ही उसके अर्थ की प्रतीति होती है । इस प्रकार तीन प्रमाण द्वारा संपादित होने वाला संबंध का ज्ञान एक बार के वाक्य प्रयोग से होना संभव नहीं है । अनित्य शब्द का पुन: पुन: उच्चारण होना भी शक्य है, उसके अभाव में अन्वय व्यतिरेक द्वारा वाचक शक्ति का ज्ञान नहीं हो सकता है, और उसके प्रभाव होने पर प्रेक्षावान पुरुष पर को समझाने के लिये वाक्य का उच्चारण भी नहीं कर सकेंगे किन्तु यह नहीं होता, अतः पर के लिये वाक्य उच्चारण की अन्यथानुपपत्तिरूप प्रमाण द्वारा शब्द नित्य रूप सिद्ध होता है ।
महर्षि जैमिनि भी कहते हैं कि “दर्शनस्य परार्थत्वान्नित्यः शब्दः” शब्दोंका उच्चारण पुन: पुन: किया जाता है उससे पर शिष्यादिको समझाया जाता है, इसीसे निश्चित होता है कि शब्द नित्य है।
शंका-पुनः पुनः उच्चारण में आने वाला शब्द सदृशता के कारण एक रूप प्रतीत होता हुआ अर्थ बोध कराता है न कि नित्य होने के कारण ?
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