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अथ न गुणवद्वक्तृकत्वेनैव शब्देऽप्रामाण्य निवृत्तिरपौरुषेयत्वेनाप्यस्याः सम्भवात् तेनायमदोषः ।
तदुक्तम्
प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
"शब्दे दोषोद्भवस्तावद्वक्त्रधीन इति स्थितम् । तदभावः क्वचित्तावद्गुणवद्वक्तृकत्वतः ॥ १॥ तद्गुणैरपकृष्टानां शब्दे सङ्कान्त्यऽसम्भवात् । यद्वा वक्तुरभावेन न स्युर्दोषा निराश्रयाः ॥२॥”
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जैन - यह कथन असुन्दर है, वेदके वाक्य उस प्रकार के प्रतीन्द्रिय पदार्थों का प्रतिपादन करते हैं ऐसा तब सिद्ध हो जब उसमें प्रप्रामाण्यका प्रभाव सिद्ध हो किन्तु वह सिद्ध नहीं है । आप लोग गुणवान वक्ताका प्रभाव मानते हैं, जब गुणवान वक्ता ही नहीं है तब उसके गुणोंद्वारा दोषोंका निराकरण नहीं हो सकता और दोषोंका निराकरण नहीं होनेसे वेदका प्रामाण्य सदोष ही बना रहता है ऐसे प्रप्रामाण्यभूत वेदको तो प्रतीन्द्रिय ज्ञान रहित पुरुष भी रच सकते हैं । अतः जो कहा था कि वेद प्रतीन्द्रिय पदार्थोंका प्रकाशक है । विश्वके संपूर्ण पुरुषों में इसप्रकार के वेदका प्रणयन करने की शक्ति नहीं है इत्यादि, सो यह कथन असत्य है । इसप्रकार वेदाध्ययन वाच्यत्व नामा पूर्वोक्त हेतु सिद्ध साधन कैसे नहीं हुआ ? श्रर्थात् हुआ ही ।
[ मी० इलो० सू० २ श्लो० ६२-६३ ]
मीमांसक - शब्द में ग्रप्रामाण्यकी निवृत्ति गुणवान वक्ता के निमित्तसे ही होती हो सो बात नहीं है, अपौरुषेयत्व के निमित्त से भी प्रप्रामाण्यकी निवृत्ति हो सकती है, अतः हमारा हेतु सिद्ध साधन नहीं हैं कहा है कि शब्द में दोषोंकी उत्पत्ति तो वक्ताके कारण हुआ करती है उन दोषोंका प्रभाव कहीं वेदवाक्यके अनंतर उत्पन्न हुए स्मृत्ति प्रादिके शब्दों में तो गुणवान वक्ताके निमित्त से होता है || १|| वक्ताके गुणोंसे निराकृत हुए दोष कोई शब्द में जाकर संक्रामित तो होते नहीं तथा अपौरुषेय होनेसे वेद में वक्ता का प्रभाव है ही, फिर उस वेदमें दोष कैसे रह सकते हैं ? क्योंकि ग्राश्रयके बिना दोप रहते नहीं ||२|| इसप्रकार स्वयं ही निश्चित हो जाता है कि वेद में अपौरुषेयत्व होने के कारण प्रामाण्य है |
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