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वेदापौरुषेयत्ववादः
सम्भवात् । न खलु पदवाक्यात्मकत्वं पौरुषेयत्वमन्तरेण क्वचिद्दष्टं येनास्य स्वसाध्या विनाभावाभावः स्यात् ।
एतेन कर्तु रस्मरणमन्यथानुपपद्यमानं कर्त्रऽभाव निश्चायकमर्थापत्तिगम्यमपौरुषेयत्वं वेदानामित्यपास्तम्; अन्यथानुपपद्यमानत्वासम्भवस्यात्र प्रागेव प्रतिपादितत्वात् । कर्त्रऽस्मरणमनुमानरूपमऽपौरुषेयत्वं प्रसाधयतीत्यप्यनुपपन्नम् प्रागेव कृतोत्तरत्वात् ।
एतेन -
"अतीतानागतौ कालौ वेदकारविवर्जितौ ।
कालत्वात्तद्यथा कालो वर्त्तमानः समीक्ष्यते ॥ १ ॥ " [
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कर्त्ताके अस्मरणकी अन्यथानुपपत्ति होनेसे वेद अपौरुषेय है अर्थात् वेदकर्ता का स्मरण ही नहीं अतः वह पुरुषकृत नहीं है, इस प्रकार कर्त्ताके अभाव के निश्चयरूप अर्थापत्तिद्वारा वेदका अपौरुषेयत्व गम्य होता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं क्योंकि यहां अन्यथानुपपद्यमानत्व ही असंभव है । इस विषयका पहले ही प्रतिपादन कर चुके हैं कि वेदकर्ताका स्मरण होता है । विशेषणको अनुमान प्रमाण रूप माना जाय ऐसा तीसरा पक्ष भी ठीक नहीं, हमने पहले बता दिया है कि कर्त्ताका अस्मरण हेतु वाला अनुमान पौरुषेयत्वको सिद्ध करनेमें असमर्थ है |
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इसप्रकार कर्ताका स्मरण होनेसे वेद अपौरुषेय है यह प्रथम अनुमान तथा "वेदाध्ययन शब्द वाच्यत्वात् वेदः अपौरुषेयः " यह द्वितीय अनुमान ये दोनों ही खंडित हो गये । इसीप्रकार निम्नलिखित अनुमान भी खंडित हुआ समझना चाहिये कि अतीतानागत काल वेदके कर्त्तासे रहित है, क्योंकि वे कालरूप हैं, जैसे वर्त्तमान काल वेदकर्ता रहित दिखायी देता है, भावार्थ यह है कि जैसे वर्त्तमान में वेदरचना करने वाला कोई पुरुष दिखायी नहीं देता वैसे ही अतीत अनागत कालमें रचयिता पुरुष नहीं था और न होगा । अतः वेद अपौरुषेय कहलाता है । ऐसा मीमांसकका तीसरा अनुमान भी पूर्वोक्त दो अनुमानोंके समान दोषोंसे भरा है, इसमें कोई विशेषता नहीं है, तथा इस अनुमानका कालत्व हेतु अन्य आगम ग्रादिमें चला जाता है ।
अतीतानागत काल वेद रचनामें जो असमर्थ है ऐसे पुरुषोंसे युक्त था और होगा ऐसा मीमांसक कहते हैं उसमें प्रश्न होता है कि जिस तरह वर्त्तमान काल वेद रचनेमें असमर्थ पुरुषोंसे युक्त है प्रथवा वेदकर्त्तास रहित काल है । क्या उसीतरह अतीता
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