________________
४४४
प्रमेयकमलमार्तण्डे
क्षिप्तश्च तुच्छस्वभावाभावः प्राक्प्रबन्धेन । द्वितीयपक्षस्तु श्रद्धामात्रगम्यः; अभावप्रमाणस्याऽसम्भवतस्तेन तद्ग्रहणानुपपत्त: । तदसम्भवश्च सत्सामग्रीस्वरूपयोः प्राक्प्रबन्धेन प्रतिषिद्धत्वात्सिद्धः।
अथ पर्यु दासरूपं तदभ्युपगम्यते । नन्वत्रापि किं पौरुषेयत्वादन्यत्पर्युदासवृत्त्या पौरुषेयत्वशब्दाभिधेयं स्यात् ? तत्सत्त्वमिति चेत्; तत्कि निविशेषणम्, अनादिविशेषण विशिष्टं वा ? प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता; ततोऽन्यस्य वेदसत्त्वमात्रस्याध्यक्षादिप्रमाणप्रसिद्धस्यास्माभिरभ्युपगमात् । पौरुषेयत्वं हि कृतकत्वम्, ततश्चान्यत्सत्त्वमित्यत्र को वै विप्रतिपद्यते ? द्वितीयपक्षः पुनरविचारितरमणीयः; वेदानादिसत्त्वे प्रत्यक्षादिप्रमाणतः प्रसिद्धयसम्भवस्याऽनन्तरमेव प्रतिपादितत्वात् ।
___ यह भी प्रश्न है कि अपौरुषेय पदमें जो न ञ समासका नकार है “न पौरुषेयः इति अपौरुषेयः" यह अभाव सूचक "अ" प्रसज्यप्रतिषेधात्मक है ( तुच्छ अभावरूप ) या पर्युदासात्मक है ? ( भावांतर स्वभावरूप ) प्रथम पक्ष कहो तो उस प्रसज्य प्रतिषेधात्मक अपौरुषेयको कौनसा प्रमाण ग्रहण करता है । सत्ताग्राहक प्रमाण या अभाव ग्राहक अभावप्रमाण ? पहली बात तो कहना नहीं, क्योंकि सत्ताग्राहक पांचों ही प्रमाण अपौरुषेयत्वको ग्रहण नहीं कर सकते ऐसा हम जैनने बता दिया है। तथा सत्ताग्राहक प्रमाणों द्वारा तुच्छ स्वभाव वाले अभावरूप अपौरुषेय का ग्रहण होना भी शक्य नहीं है, हमने तुच्छ स्वभाव वाले प्रभावका पहले भागमें खंडन कर भी दिया है ।
अभाव प्रमाणसे अपौरुषेयत्व जाना जाता है ऐसा कहना भी श्रद्धा मात्र है, क्योंकि अभाव प्रमाण ही असंभव है तो उसके द्वारा अपौरुषेयत्व क्या ग्रहणमें आयेगा ? अभाव प्रमाण असंभव क्यों है इस बातको पहले भागके "अभावस्य प्रत्यक्षादावन्तर्भावः" नामा प्रकरणमें कह चुके हैं ।
__पर्युदासात्मक अभाव इष्ट है ऐसा उत्तर पक्ष कहो अर्थात् “न पौरुषेयः इति अपौरुषेयः" जो पौरुषेय नहीं है वह अपौरुषेय है पौरुषेयसे जो अन्य हो वह अपौरुषेय पदका वाच्य है ऐसा कहा जाय तो प्रश्न होता है कि पौरुषेयसे अन्य जो वाच्य पदार्थ है वह कौनसा है ? वह वाच्यार्थ वेदका सत्व (अस्तित्व) है ऐसा उत्तर देवे तो पुनः शंका होती है कि वह सत्व निविशेषण है या अनादि विशेषण विशिष्ट है ? प्रथम पक्ष माने तो सिद्ध साध्यता है क्योंकि पौरुषेयसे अन्य जो वेदका सत्व मात्र है जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणसे प्रसिद्ध है उसको हम जैन मानते ही हैं, पौरुषेयत्व अर्थ है कृतकत्व और जो इससे अन्य है वह सत्व है ऐसा कौन नहीं मानता ? अर्थात् कृतकत्व और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org