________________
वेदापौरुषेयत्ववादः
४३५
किंच, यथाभूतानां पुरुषाणामध्ययनपूर्वकं दृष्टं तथाभूतानामेवाध्ययनशब्दवाच्यत्वमध्ययनपूर्वक्त्वं साधयति, अन्यथाभूतानां वा ? यदि तथाभूतानां तदा सिद्धसाधनम् । अथान्यथाभूतानां तर्हि सन्निवेशादिवदऽप्रयोजको हेतुः। अथ तथाभूतानामेव तत्तथा ततः साध्यते, न च सिद्धसाधनं सर्वपुरुषाणामतीन्द्रियार्थदर्शनशक्तिवैकल्येनातीन्द्रियार्थप्रतिपादकप्रेरणाप्रणेतृत्वासामर्थ्य नेदृशत्वात् । तदप्यसाम्प्रतम्; यतो यदि प्रेरणायास्तथाभूतार्थप्रतिपादने अप्रामाण्याभावः सिद्धः स्यात् स्यादेतत्-यावता गुणवद्वक्त्रऽभावे तद्गुणैरनिराकृतैर्दोषैरपोहितत्वात् तत्र सापवादं प्रामाण्यम्, तथाभूतां प्रेरणामतीन्द्रियार्थदर्शनशक्तिविरहिणोपि कर्तुं समर्था इति कुतस्तथाभूतप्रेरणाप्रणेतृत्वासामर्थ्यनाऽशेषपुरुषाणामीदृशत्वसिद्धिर्यतः सिद्धसाधनं न स्यात् ?
नहीं कह सकते कि जिसका अध्ययन गुरु पूर्वक चला आ रहा वह ग्रंथ अपौरुषेय ही होता है।
यहां एक प्रश्न है कि अध्ययन वाच्यत्व हेतु अध्ययन पूर्वकत्व साध्यको सिद्ध करता है सो वर्तमानमें जिस तरहके पुरुष होते हैं और उनके द्वारा अध्ययन चलता है । उसी प्रकारके पुरुषों द्वारा अध्ययन चला आ रहा है ऐसा अध्ययन पूर्वकत्व सिद्ध करना है अथवा विशिष्ट पुरुषों द्वारा ( अतीन्द्रिय पदार्थों को जाननेवाले अतीन्द्रिय ज्ञानी पुरुषों द्वारा ) अध्ययन चला आ रहा है ऐसा अध्ययन पूर्वकत्व सिद्ध करना है ? प्रथम पक्ष कहो तो सिद्ध साधन है, हम मानते ही हैं कि अध्ययन गुरुपूर्वक होता है। दूसरा पक्ष कहो तो हेतु अप्रयोजक कहलायेगा ? ( जो हेतु सपक्ष में तो रहे और पक्षसे व्यावृत होवे ऐसा उपाधिके निमित्तसे संबंधको प्राप्त हुआ हेतु अप्रयोजक दोष युक्त होता है ) जैसे कि ईश्वरकी सिद्धि में दिये गये सन्निवेशत्व ग्रादि हेतु अप्रयोजक दोष युक्त होते हैं।
मीमांसक-हम तो वर्तमानमें जैसे पुरुष होते हैं उन पुरुषोंके द्वारा वेदाध्ययन होना मानते हैं और उसी हेतु से अपौरुषेय साध्यको सिद्ध करते हैं ऐसा करने पर भी सिद्ध साधन नामा दोष नहीं आता, क्योंकि हम विश्वके संपूर्ण व्यक्तियोंको अतीन्द्रिय पदार्थोंके ज्ञानसे रहित मानते हैं किसी कालका भी पुरुष हो वह अतीन्द्रिय पदार्थोंका प्रतिपादन करनेवाले वेदकी रचना कर नहीं सकता, अतः वेद अपौरुषेय ही सिद्ध होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org