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वेदापौरुषेयत्ववादः
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अतुल्यबलत्वे वा किमनुमानबाधया ? येनैव दोषेरणास्यास्तुल्यबलत्वं तत एवाप्रामाण्यप्रसिद्ध: । विषयबाधाप्यनुपपन्ना; तुल्यबलत्वेन हेत्वोः परस्परविषयप्रतिबन्धे वेदस्योभयधर्मशून्यत्वानुषङ्गात् । एकस्य वा स्वविषयसाधकत्वेऽन्यस्यापि तत्प्रसङ्गाद् धर्मद्वयात्मकत्वं स्यात् । अतुल्यबलत्वे तु यत एवातुल्यबलत्वं तत एवाऽप्रामाण्यप्रसिद्ध ेः किमनुमानबाधयेत्युक्तम् ।
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एतेन
दोनों भी हमें इष्ट हो मान्य हो । यहां मीमांसकके अपौरुषेय वेदका प्रकरण है, "ग्रस्मर्यमाणकर्तृत्वात् वेदः अपौरुषेयः " वेद अपौरुषेय ( किसी पुरुष द्वारा रचा हुआ नहीं स्वयं ही बना हुआ है ) है ( साध्य ) क्योंकि इसके कर्त्ताका स्मरण नहीं है ( हेतु ) इसप्रकार मीमांसक का अनुमान प्रयोग है, इसमें अस्मर्यमाणकर्तृत्व हेतु है, इसका जैनाचार्यने विविध प्रकारसे खंडन किया है एवं उसमें असिद्धादि दोष सिद्ध किये हैं । जब यह हेतु सदोष सिद्ध हुआा तब मीमांसक कहते हैं कि हमने इस हेतुको प्रसंग साधनरूपसे ग्रहण किया है, किन्तु यह कथन सर्वथा सत् है, प्रस्मर्यमाणकर्तृत्व हेतु प्रसंग साधन तब बनता जब जैन वेदको पौरुषेय मानकर भी उसके कर्त्ताका स्मरण होना स्वीकार नहीं करते अर्थात् श्रस्मर्यमाणकर्तृत्वरूप हेतुको तो मानते और साध्य बनाते पौरुषेयत्वको, तब अनिष्ट का प्रसंग प्राप्त हो सकता था कि यदि जैनादि अन्य वादी वेदकर्ताका स्मरण होना नहीं मानते तो उन्हें वेदको अपौरुषेय भी मानना होगा इत्यादि । किन्तु ऐसा प्रसंग या नहीं सकता, क्योंकि जैन प्रादि वादी पहले से ही वेद कर्ताका स्मरण होना बतलाते हैं । इसप्रकार मीमांसकका उपर्युक्त हेतुको निर्दोष सिद्ध करनेका प्रयत्न असफल होता है ।
पौरुषेयत्वको सिद्ध करने वाले अनुमान में बाधा आती है ऐसा मीमांसकका कहना है सो उसमें प्रश्न होता है कि प्रसंग साधनरूप अनुमान द्वारा इस अनुमानका स्वरूप बाधित किया जाता है अथवा विषय बाधित किया जाता ? स्वरूप बाधित किया जाता तो शक्य नहीं, क्योंकि यदि पौरुषेयत्व साध्यवाला अनुमान उक्त अनुमान से बाधित हो सकता है तो आपका अपौरुषेय साध्यवाला अनुमान भी उक्त अनुमान से बाधित हो सकता है, क्योंकि ये दोनों ग्रनुमान ( पौरुषेय साध्यवाला और अपौरुषेय साध्यवाला ) तुल्यबल वाले हैं परस्पर में विशेषता नहीं है । यदि मान लिया जाय कि उक्त दोनों अनुमानोंमें तुल्य बल नहीं है तो अनुमान द्वारा बाधा उपस्थित करना
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