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प्रमेयकमलमार्तण्डे
नापि सर्वसम्बन्धिप्रत्यक्षेण; तेन ह्यनुभवाभावोऽसिद्धः । न ह्यग्दृिशां 'सर्वेषां तत्र कर्तृ ग्राहकस्वेन प्रत्यक्षं न प्रवर्तते' इत्यवसातु शक्य मिति तत्र तत्स्मरणस्य छिन्नमूलत्वासिद्धरस्मर्यमाणकर्तृकत्वादित्य सिद्धो हेतुः।
अथ प्रमाणान्तरेणानुभवाभावः; तन्न; अनुमानस्य अागमस्य च प्रमाणान्तरस्य तत्र कर्तृसद्भावावेदकस्य प्राक्प्रतिपादितत्वात् ।
किञ्च, अस्मर्यमाणकर्तृकत्वं वादिनः, प्रतिवादिनः, सर्वस्य वा स्यात् ? वादिनश्चेत्; तदनकान्तिकं “सा ते भवतु सुप्रीता" [ ] इत्यादौ विद्यमानकर्तृ केप्यस्य सम्भवात् । प्रतिवादिन
माना जाता है ऐसा कहना गलत है। अब सर्व संबंधी प्रत्यक्षके द्वारा अनुभव नहीं होनेसे वेदकर्ताका स्मरण छिन्नमूल माना जाता है, ऐसा दूसरा पक्ष कहा जाय तो वह भी गलत होता है, क्योंकि सर्व संबंधो प्रत्यक्षके द्वारा होनेवाले अनुभवका अभाव असिद्ध है, इसमें भी कारण यह है कि हम जैसे लोगोंका प्रत्यक्ष ज्ञान "सभी जीवोंके प्रत्यक्ष द्वारा वेदकर्ताका अनुभव नहीं होता" ऐसा जाननेके लिये समर्थ नहीं है। जब सबके प्रत्यक्षका निर्णय ही नहीं कर सकते तो वेदक का स्मरण छिन्नमूल होनेसे वेदको अस्मर्यमाण कर्तृत्व रूप मानते हैं ऐसा कहना कैसे सिद्ध हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता । इस तरह अस्मर्यमाण कर्तृत्व हेतु प्रसिद्ध ही कहलाता है ।
यदि कहा जाय कि प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा वेदकर्ताके अनुभवका अभाव सिद्ध नहीं होता तो मत हो अन्य प्रमाण द्वारा उस अभावको सिद्ध किया जाय ? सो यह कथन गलत है, अनुमान और आगमरूप जो अन्य प्रमाण है वह तो वेदमें कर्ताका सद्भाव ही सिद्ध करता है, न कि अभाव, इस बात का पहले ही प्रतिपादन कर दिया है।
मीमांसक वेदको अपौरुषेय सिद्ध करने के लिये अस्मर्यमाण कर्तृत्व नामा हेतु प्रस्तुत करते हैं मो वेदक का स्मरण किसको नहीं, वादीको ( मीमांसकको ) या प्रतिवादीको (जैनादिको) अथवा सभीको ? वादीको कहो तो हेतु अनैकान्तिक बन जायगा, क्योंकि “सा ते भवतु सुप्रीता" इत्यादि आगम वाक्य कर्तायुक्त होते हुए भी अस्मर्यमाण कर्तृत्व वाले हैं, अर्थात् इन वाक्योंका कर्ता भी स्मरणमें नहीं पाता। प्रतिवादीको वेदक का स्मरण नहीं है ऐसा कहो तो प्रसिद्ध हेत्वाभास होवेगा, क्योंकि
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