Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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वेदापौरुषेयत्ववादः
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सम्भवात् ? तत्र न तावत्प्रथमद्वितीयविकल्पो घटेते; तथाहि - वेदपदवाक्यानि पौरुषेयारिण पदवाक्यत्वाद्भारतादिपदवाक्यवत् ।
अपौरुषेयत्वप्रसाधकप्रमाणाभावाच्च कथमपौरुषेयत्वं वेदस्योपपन्नम् ? न च तत्प्रसाधकप्रामाणाभावोऽसिद्धः; तथाहि तत्प्रसाधकं प्रमाणं प्रत्यक्षम्, अनुमानम् अर्थापत्त्यादि वा स्यात् ? न तावत्प्रत्यक्षम्; तस्य शब्दस्वरूपमात्र ग्रहणे चरितार्थत्वेन पौरुषेयत्वा पौरुषेयत्वधर्मग्राहकत्वाभावात् । अनादिसत्त्वस्वरूपं चापौरुषेयत्वं कथमक्ष प्रभव प्रत्यक्ष परिच्छेद्यम् ? अक्षारणां प्रतिनियतरूपादिविषयतया अनादिकाल सम्बन्धाऽभावतस्तत्सम्बन्धसत्त्वेनाप्यसम्बन्धात् । सम्बन्धे वा तद्वदऽनागतकालसम्बद्धधर्मादिस्वरूपेणापि सम्बन्धसम्भवान्न धर्मज्ञप्रतिषेधः स्यात् ।
समाधान - यह शंका प्रसार है, अतीन्द्रिय पदार्थोंको जानने वाले भगवान अरिहंत देव हैं ऐसा अभी सर्वज्ञ सिद्धिमें निश्चय कर प्राये हैं, तथा आगम अपौरुषेय हो नहीं सकता, ग्राप अपौरुषेय किसको मानते हैं पदको, वाक्यको या वर्णोंको ? इनको छोड़कर अन्य तो कोई ग्रागम है नहीं । पद और वाक्यको अपौरुषेय कहना शक्य नहीं, क्योंकि पद स्वयं रचना बद्ध हो जाय ऐसा देखा नहीं जाता । अनुमान प्रयोगवेदके पद और वाक्य पौरुषेय ( पुरुष द्वारा रचित ) है क्योंकि पद वाक्य रूप है, जैसे महाभारत आदि शास्त्रोंके पद एवं वाक्य पौरुषेय होते हैं ।
वेदको पौरुषरूप सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण भी दिखाई नहीं देता, फिर किस प्रकार उसको अपौरुषेय मान सकेंगे ? वेदके अपौरुषेयत्वका प्रसाधक प्रमाण नहीं हैं यह बात प्रसिद्ध भी नहीं । वेदके अपौरुषेयत्वको कौनसा प्रमाण सिद्ध करेगा । प्रत्यक्ष, अनुमान या अर्थापत्ति ग्रादिक ? श्रावण प्रत्यक्ष प्रमाणतो कर नहीं सकता क्योंकि वह तो केवल शब्दके स्वरूपको जानता है, यह सुनायी देनेवाला पद वाक्य पौरुषेय है या अपौरुषेय है इत्यादिरूप शब्द के धर्मको श्रावण प्रत्यक्ष ज्ञान जान नहीं सकता । तथा अपौरुषेय तो अनादि कालसे सत्ताको ग्रहण किया हुआ रहता है इन्द्रिय जन्य प्रत्यक्ष उसको कैसे जान सकता है ? इंद्रियां तो अपने अपने प्रतिनियत रूप शब्द प्रादि विषयों को ग्रहण करती है, इन्द्रियोंका अनादिकाल से कोई सम्बन्ध नहीं है अतः इंद्रियां अनादि अपौरुषेय शब्द के सत्ताके साथ संबंधको स्थापित नहीं कर सकती । अनादि कालीन पदार्थ से यदि इंद्रियां संबंधको कर सकती हैं तो उसके समान अनागतकाल संबंधी धर्म अधर्म के साथ भी सम्बन्ध स्थापित कर सकेगी ? फिर तो आप मीमांसक श्रात्माके धर्मज्ञ बनने का निषेध नहीं कर सकेंगे । अर्थात् आपका यह कहना है कि कोई
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