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अविनाभावादीनां लक्षणानि नास्त्यत्र गुहायां मृगक्रीडनं मृगारिशब्दनात् कारणविरुद्धकार्य विरुद्धकार्योपलब्धौ यथेति ।९३॥
मृगक्रीडनस्य हि कारणं मृगः । तेन च विरुद्धो मृगारिः । तत्कायं च तच्छब्दनमिति । ननु यद्यव्युत्पन्नानां व्युत्पत्त्यर्थं दृष्टान्तादियुक्तो हेतुप्रयोगस्तहि व्युत्पन्नानां कथं तत्प्रयोग
इत्याह--
व्युत्पन्नप्रयोगस्तु तथोपपत्त्याऽन्यथाऽनुपपत्त्यैव वा ॥१४॥ एतदेवोदाहरणद्वारेण दर्शयति
अग्निमानयं देशस्तथैव धूमवत्त्वोपपत्त धूमवत्त्वान्यथानुपपत्ता ॥९५।।
नास्त्यत्र गुहायां मृग क्रीडनं मृगारि शब्दनात् कारण विरुद्ध कार्यविरुद्ध
कार्योपलब्धौ यथा ।।३।। सूत्रार्थ--इस गुहामें हिरणकी क्रीडा नहीं है, क्योंकि सिंहकी गर्जना हो रही है । यह “मृगारिशब्दनात्" हेतु कारणके विरुद्ध जो कार्य है उस रूप है अतः इस हेतुका विरुद्धकार्योपलब्धि नामा हेतुमें अंतर्भाव करना होगा। क्योंकि हिरणकी क्रीडाका कारण हिरण है और उसका विरोधी सिंह है उसका कार्य गर्जना है अतः यह हेतु विरुद्ध कार्योपलब्धि कहलाया।
शंका-अव्युत्पन्न पुरुषोंको व्युत्पन्न करनेके लिये दृष्टान्त आदिसे युक्त हेतु प्रयोग होना चाहिए ऐसा प्रतिपादन कर आये हैं किन्तु जो पुरुष व्युत्पन्नमति हैं उनके लिये किस प्रकारका हेतु प्रयोग होता है ?
समाधान-अब इसी शंकाका समाधान करते हैं
व्युत्पन्न प्रयोगस्तु तथोपपत्त्यान्यथानुपपत्त्यैव वा ।।१४।।
सूत्रार्थ – व्युत्पन्नमति पुरुषोंके लिए तथोपपत्ति अथवा अन्यथानुपपत्तिरूप हेतुका प्रयोग होता है, अर्थात् इस विवक्षित साध्यके होनेपर ही यह हेतु होता है ऐसा "तथोपपत्ति" रूप हेतु प्रयोग अथवा इस साध्यके न होनेपर यह हेतु भी नहीं होता ऐसा अन्यथानुपपत्तिरूप हेतुप्रयोग व्युत्पन्नमतिके प्रति हुअा करता है । इसीका उदाहरण द्वारा प्रतिपादन करते हैं -
अग्निमानयं देशस्तथैव धूमवत्वोपपत्तेधू मवत्वान्यथानुपपत्तेर्वा ॥६५॥
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